दर्शन ग्रन्थ की खुशी

दर्शन ग्रन्थ की खुशी

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कुछ ही दिन की बात है मेरे गांव में एक महात्मा जी आये थे। महात्मा जी के हजारों भक्त, सैकड़ों आश्रम और बहुत सेवादार हैं, मेरे माता-पिताजी भी उनके शिष्य हैं। जिस दिन महात्मा जी आने वाले थे, उस दिन से लगभग दस-पन्द्रह दिन पहले से ही तैयारी जोरों शोरों के साथ चल रही थी। अन्ततः वह दिन आ गया जब महात्मा जी के आगमन का इन्तजार हो रहा था। मेरे गांव तथा मेरे गाँव के अगल बगल के गाँवों वाले महिला, पुरुष, बच्चे, बड़े,-बुजुर्ग प्रातःकाल से ही आश्रम की तरफ प्रस्थान करने लगे।

मैं उस दिन घर पर ही था, क्योंकि मेरे परिवार के सभी सदस्य महात्मा जी के दर्शन करने हेतु आश्रम गये हुए थे। मेरे न जाने का प्रमुख कारण घर पर एक छोटी सी दुकान थी। जिसमें मैं आज भी बैठता हूं।

दोपहर के डेढ़-दो बजे होंगे की मेरे मन में एक विचार आया कि मुझे भी महात्मा जी के दर्शन करना चाहिए और मैं जाने की तैयारी करने लगा। तभी मैनें दुकान के गल्ले में से पांच-पांच के चार सिक्के निकाले, आप उसे चोरी समझें या जिम्मेदारी! मैं सिक्कों को अपने जेब में रखा और घर, दुकान में ताला लगाकर आश्रम की तरफ बढ़ने लगा। घर और आश्रम के बीच लगभग एक किमी की दुरी होगी तथा मेरे घर से 400मी० की दूरी पर मेरा दुसरा मकान पड़ता है।

मैं जाते समय अपने दूसरे मकान पर रुका, वहाँ मेरे दादाजी और गांव के ही एक सज्जन आपस में वार्तालाप कर रहे थे। तभी मेरे दादाजी मुझसे कहे, "मंजीत जल्दी दर्शन करके आ जहिया काहे से की पशु के चारा भी तोहके डाले के ह और फिर घरे जाके दुकान भी देखे के ह।” मैने दादाजी के सामने सहमति से ‘हां’ में सिर हिलाया और आश्रम की तरफ चलता बना।

आश्रम के नजदीक पहुँचा तो देखा की भीड़ बहुत थी और मेला भी लगा था। सब श्रद्धालु दुकानों से महंगे पुष्पहार खरीदकर और पैसे महात्मा जी चरण कमलों में अर्पित कर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे, मैं एक जगह खड़ा होकर सब देख रहा था।

कुछ देर मैं पुस्तकों के दुकानों पर घूमा, किन्तु कोई किताब न ले सका।

सब लोग भण्डारे में प्रसाद ग्रहण कर रहे थे, मैं वहाँ भी गया, मेरे पिताजी भोजन परोस रहे थे, मैं वहां से भी चला आया।

धीरे-धीरे शाम होने लगी, मेरे जेब में अभी भी बीस रुपये थे,

मैं आश्रम जाकर भी महात्मा जी का दर्शन, पुष्पहार और पैसे के द्वारा न कर सका, न ही भण्डारे में प्रसाद ग्रहण किया।

तभी मेरी नजर मेरे दादाजी पर पड़ी जो हाथ में लकुटी लिये हुए थे क्योंकि अब उनका वृद्धावस्था आ चुका है। मैं दौड़कर उनके पास गया और बोला, "बाबू (दादाजी) हम जात हई घरे काहे से की पशु के चारा डाले के ह और दुकान भी देखे के ह।” और अपनी जेब से बीस रूपये निकालकर उनके हाथों में देकर कहा, "बाबू जिलेबी खा लिहा।” उस क्षण मेरे दादाजी अपने आंसू नहीं रोक पाये।

मैं जब घर आ रहा था तो मुझे सच में लगा की मैने महात्मा जी के दर्शन कर लिये और आशीर्वाद रूपी प्रसाद भी प्राप्त किया।

आज इस लेख को लिखते हुए मुझे यह प्रतीत हो रहा है कि मैनें उस दिन किताब नहीं बल्कि एक ग्रन्थ खरीद लिया था।


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