*दरिंदों को कब होगी फांसी?*
*दरिंदों को कब होगी फांसी?*
कब तक ज़ुल्म की आंधी का वक़्क़ार देखेंगे
खामोश रहकर, तमाशा बार-बार देखेंगे
सब्र की इंतेहा फिर टूट न जाये कहीं
फिर कलयुग में, कृष्ण अवतार देखेंगे।
कब तक ,आखिर कब तक ? दरिंदों को कब होगी फांसी ?। तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख सात साल हो गए, इस ज़ुल्म की इंतेहा हुए। उस मासूम की याद आज भी रातों को सोने नहीं देती, रातों में उठकर अपनी बेटी के कमरे में जाकर देखती हूँ वो सलामत तो है न--- जिस दरिंदे ने दरिंदगी की हद पार कर दी, शैतान भी शर्मसार हो गया, आज तक वो अपनी साँस की हवा से हिंदुस्तान के वातावरण को प्रदूषित कर रहा है।
दिन प्रतिदिन बढ़ावा दे रहा है, ये साबित कर रहा है के हम गुनहगार नहीं। बताये कोई ,क्या बचपन से ही हम नक़ाब पहनाना, साड़ी पहनाना शरू कर दें ? आँखों में आंसू लेना, मोमबत्ती जलाना इंसाफ नहीं,,,,, ज़ुल्म की आंधियों को रोकना इंसाफ है, ग़लत सोच पैदा करने वाली रूढ़िवादी सोच को मिटाना इंसाफ है। थक गई है नज़रें हर रोज़ बलात्कार की खबरें पढ़कर, कानों से सुनकर,अब बस अब और नहीं। सज़ा ऐसी हो के ग़लती करने से पहले हर लोगों में ये खौफ होनी चाहिए के उसका अंजाम बुरा होगा।
लोहे को लोहा काटता है फिर उस मासूम की मौत की सज़ा मौत से क्यों न ली जाए। इंसानियत अच्छी लगती है पर जुल्म मिटाने की खातिर न कि ज़ुल्म बढाने की खातिर। सतयुग में भी यही हुआ जब कृष्ण को आना पड़ा द्रौपदी को बचाने की खातिर, आज का कृष्ण कहां खोया है ? ये दर्द हर उस लड़की का है जिसने लड़की में जन्म लिया चाहे वो किसी की बहन हो, बेटी हो, माँ हो, प्रेमिका हो या फिर बागों की नन्ही कलियाँ।हाँ हमारे हिन्दुस्तान के चमन की नन्ही कलियाँ जिसकी आवाज़ आज भी कानों में गूंज रही है।
मजलूमों की आवाज़ को दबा रहा है कोई
जुल्म की हवा बढ़ा रहा है कोई
कैसे न हो फिक्र हमें हमारे चमन की
कच्ची कलियों को काँटो पे सुला रहा है कोई।