दिवाली
दिवाली
अभी कुछ दिन ही तो हुए हैं
दशहरा गुजरे
और अब ये दिवाली आ गयी
मिठाइयां,
कपड़े लत्ते, जूते मौजे फलां फलां
बड़ी खवाहिशें थी
त्योहारों में इन सब चीजों की
मगर बस ख्वाहिश
क्योंकि हकीकत में
इन सब चीजों के
पैसे लगते हैं
और वही मेरे पास नहींं
क़िस्से कहानियों में पढ़ा करते थे
के त्यौहार अपने साथ
खुशियाँ ले के आता है
मजहब चाहे कोई भी हो
उम्र कैसी भी हो
अमीर हो, गरीब हो
अफ्सर हो या फिर मजदूर
कोई फर्क नहीं पड़ता
क्योंकि त्यौहार ,सब के लिए है
ये खुशियाँ,सब के लिए ले कर आती है।
पर अब ,जब असल ज़िन्दगी
में इनसे रूबरू हुए
तो पता चला
ऐसा है ही नहींं
यहाँ हर चीज़ के पैसे लगते हैं
यहाँ कुछ भी मुफ्त नहीं
त्यौहार तो एक दम नहीं
और दिवाली ... सोंचना भी मत
घर के बाहर जब लोगों को नए नए कपड़ों में
एक दूसरे को मिठाइयाँ देते और
बच्चों को फुलझड़ियाँ जलाते देखते
तो अपनी किस्मत पर बड़ा रोना आता
लगता मैं वहां क्यों नहीं हूँ ?
मैं यहाँ क्यों हूँ ?
बड़ा रोना आता और
कभी कभी रो भी जाता
पर उन पटाखों की आवाज़
और फुल्झडियों की रौशनी में
मेरी आवाज और आंसू
दोनों कहीं खो जाते
और साथ में मैं भी
माँ कई बार मुझे उदास देख
मुझे तस्सल्ली देती
मेरा ढाढ़स बांधती
कि बेटा तू चिंता मत कर
ये हमारा बुरा वक़्त है
और ऐसा नहीं है की
हम इसी हाल में रहेंगे
वक़्त की फितरत है बदलने की
ये कभी किसी के पास नहीं रहता
हमेशा बदलता रहता है
और हमारा भी बदलेगा
पर मुझे पता है
माँ की ये तसल्ली एकदम झूठी है
क्योंकि मैंने खुद उनको
कई बार रोते देखा है
और बात अगर वक़्त की होती
तो माँ ऐसे ना रोती
उनको ऐसा देख
मैं खुद को बड़ा बेबस
और कमजोर महसूस करता
अक्सर सोचता कि जा कर बात करूं
कि आप ऐसा क्यों करती हैं ?
जुबान पर कुछ और
और दिल में कुछ और
क्यों रखती हैं ?
पर सच कहूँ तो
हिम्मत नहीं कर पाया तो
बिना कहे
उस रात उन आंसुओं के बीच
ये ठान लिया
कि मैं अपनी दिवाली जरूर लाऊंगा
ढेर सारे पैसे कमाऊंगा
खुशियाँ खरीदूंगा
नए कपड़े पहनूंगा पहनाऊंगा
मिठाइयां खाऊंगा और खिलाऊंगा भी।
हाँ मैं अपनी दिवाली एक दिन जरुर लाऊंगा।
