रद्दीवाला

रद्दीवाला

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“अरे ओ नालायक, कुछ अक्षर पढ़ लिख ले, नहीं तो जिंदगी भर मेरी तरह टायर का पंक्चर बना के अपना गुजर बसर करेगा।” शंकर चाचा ने अपने बेटे राहुल को आवाज़ लगाई।

“रद्दी वाला, रद्दी दे दो,रद्दी।” बाहर कोई रद्दी वाले की आवाज़ सुन राहुल बाहर निकला। आवाज़ से लग रहा था जैसे रद्दीवाला कोई 9-10 साल का बच्चा हो।

“ओये रद्दी वाले भाई, जरा सुन तो।”, राहुल ने आवाज़ लगाई।

“बोलो भैया....”, रद्दी वाले ने कहा।

“क्या क्या लेते हो ?”, राहुल ने पूछा।

“जी पुराने अखबार, पुरानी किताबें-कॉपियाँ और अगर कुछ रद्दी का सामान हो तो मैं ले लूँगा।”

“अच्छा ये नट बोल्ट लोगे क्या ?, राहुल ने हँसते हुए पूछा।

“नहीं भैया, मैं रद्दी वाला हूँ कोई कबाड़ी वाला नहीं। लोहे का बेकार सामान कबाड़ी वाला लेता है।”

सामने पंचर बनाने आये राकेश पाण्डेय खड़े थे जिनकी उम्र यही कोई 50 के लगभग थी, वो एक शिक्षक थे। उस रद्दी वाले की बात सुन के और उसके बोलने के तरीके से बहुत प्रभावित हुए। आखिर एक रद्दी वाला इतनी अच्छी हिंदी इतने विनम्र भाव से कैसे बोल सकता है वो भी इतनी कम उम्र में।

“नाम क्या है तुम्हारा ?”,पाण्डेय जी ने रद्दी वाले से पूछा।

“जी पप्पू ”,उसने जवाब दिया।

“रद्दी जमा करने के अलावे और क्या करते हो बाबू ?”,पाण्डेय जी ने फिर सवाल किया ।

“कुछ नहीं ! बस रद्दी जमा करते करते शाम हो जाती है और फिर शाम को घर...”, पप्पू ने जवाब दिया।

“मेरा मतलब स्कूल जाते हो क्या ?”, पाण्डेय जी ने फिर पूछा।

“नहीं ”

“पहले कभी गये हो ?”

“नहीं, कभी नहीं गया। स्कूल जाने की किस्मत मेरी कहाँ चाचा ?”

इस बार फिर उसका संबोधन सुन पाण्डेय जी चौंक गये। एक रद्दी वाला जो कभी स्कूल नहीं गया वो इतने सहजता से कैसे बात कर सकता है।

“क्यूँ नहीं जा सकते स्कूल ?”

“गरीब का बच्चा हूँ ना चचा... जिस दिन काम छोड़ के स्कूल चला गया, समझो उस दिन मेरे घर की हांडी खूंटी में टंग जाएगी।”

“लगता है तुम्हें पता नहीं, बालश्रम करवाने वाले और करने वाले को सजा का प्रावधान है और इसे सरकार ने लागू भी कर दिया है।”, पाण्डेय जी ने उसकी बुद्धि परखने के लिए क़ानून का धौंस दिखाने की कोशिश की।

पर उसके जवाब ने मानो उल्टा पाण्डेय जी का ही मुंह बांध दिया हो, ”हँसी आती है ऐसे सरकार पर जो ये कानून बनाती हैं।”

“क्या ! हँसी आती है तुम्हें। वो भी सरकार पर और सरकार की नीतियों पर ? मतलब सरकार में बैठे लोगों से तुम ज्यादा जानकार हो।”,पाण्डेय जी ने थोड़ा मजे लेते हुए बोले।

“बेशक़ मैं उनसे कम जानकार हूँ। वैसे तो मैं कभी स्कूल नहीं गया ही ही ही.... लेकिन मुझे हँसी आती है, आपको भी आएगी । चलो आप तो हमसे ज्यादा पढ़े लिखे हो आप ही मेरे सवालों के जवाब दे दो। आपको क्या लगता है जो बच्चे आपको काम करते दिखाई पड़ते हैं वो अपनी मर्ज़ी से काम करते हैं ?”

“नहीं... एकदम नहीं। इसीलिए तो, जो काम करवाता है उसके लिए सजा का प्रावधान है।”

“बहुत अच्छा, क्या कोई परिवार अपने बच्चे को काम करने को मजबूर करेगा अगर वो उसको खुद पालने में सक्षम हो तो ?”

“नहीं, एकदम नहीं।”

“तो फिर सोचिये जो बच्चा काम करने को मजबूर है वो अपने मन से काम नहीं कर रहा बल्कि उसकी कोई न कोई मजबूरी जरुर होगी। आप और आपकी सरकार ने बखूबी कानून बना दिया और दलील दे डाली की ये कम उम्र के बच्चे को संरक्षण देगी। मगर चचा, कभी असलियत जा के देखिये हमारे गाँव में, जहाँ न जाने कितने परिवार बेबसी में ज़िन्दगी गुजार रहे हैं। किसी का बाप मर गया है और माँ बीमार पड़ी है उसके घर का बच्चा क्या करेगा ? यूँ ही घर में बैठा रहे ? मर जाने दे अपनी माँ को ? खुद मर जाए ?”

अब पप्पू पूरे जोश में आ गया था और अन्दर दबी सारे गुबार मानो बाहर कर रहा हो। वो अब भी बोल ही रहा था।

“किसी का बाप है तो वो दिन रात नशे में ही डूबा रहता है। उनका घर कैसे चले ? हँसी मुझे इसी बात पर आती है आखिर उन परिवार का क्या हो जिनका घर परिवार उनके घर के कम उम्र के बच्चों की वजह से ही चल रहा है ? क्या उनके बारे में सरकार को नहीं सोचना चाहिए ?”

“बाबू, वैसे परिवारों के लिए भी सरकार ने सुविधाएं दे रखी हैं तभी तो ये बाल मजदूरी के विरुद्ध ये कानून ले के आई है। क्या तुम्हें नहीं मालूम ?”

पप्पू ने बात काटते हुए पाण्डेय जी से कहा–“कहीं आप जन वितरण प्रणाली की बात तो नहीं कर रहे ?”

“जी बिलकुल, गरीबी रेखा के नीचे वाले को चावल, गेंहू, मिटटी का तेल, चीनी और कभी-कभी कपडे भी देती है।”, पाण्डेय जी ने कहा।

“जी बिलकुल, लेकिन इसका फायदा कितनों को मिल पा रहा है ये तो आप भी जानते होंगे चचा।”

बेशक पप्पू अभी बहस में कच्चा था, उसकी जानकारी भी कम हो। मगर पाण्डेय जी उनके उठाये सवालों से सहमत थे और उससे प्रभावित भी।

हो भी क्यूँ न, एक ऐसा लड़का जो कभी स्कूल नहीं गया। दिन भर रद्दी जमा करता रहता है उसके पास इतनी सारी जानकारी और बोलने का लहजा इतना सरल और सुन्दर की किसी को भी प्रभावित कर दे और दूसरा कारण ये भी है कि उसी की उम्र के और लड़के या तो नशे की लत से जूझ रहे हैं या फिर दूसरे बुरे कामों या आशाहीन पड़े हैं वही ये लड़का अपनी उम्र के हिसाब से समाज की कितनी अच्छी जानकारी रखे हुए था।

“अच्छा, इतनी जानकारियाँ जब है ही तुम्हारे पास तो अपने और गरीब लोगों के हक के लिए लड़ते क्यूँ नहीं ? बन जाओ उनका नेता। ”,पाण्डेय जी ने अपनी बात ख़त्म भी नहीं की थी की पप्पू हँसते हुए बोला– “तो क्या मैं भी आज कल के अनपढ़ नेताओ की भांति बस झंडा उठाऊं और निकल पडू राजनीति करने। मैं भी कोई सेना बना के निकल पडू सड़कों पर ? वैसे तो मेरी अभी वो उम्र नहीं चचा, मगर बड़ा दुःख होता है जब देखता हूँ पढ़े लिखे लोगों को अनपढ़ जाहिलों की तरह व्यवहार करते। मैं हमेशा सोचता हूँ कि अपना देश एक दिन जरुर सुधरेगा मगर उन लोगों को देखता हूँ तो थोड़ा संदेह होता है।”

“तो अब कैसा लगता है देश सुधरेगा या नहीं ?, पाण्डेय जी ने उत्सुकता के साथ पूछा।

“सुधरेगा .... जरूर सुधरेगा।”

इन दोनों की बहस को शंकर चचा और राहुल बड़े चाव से सुन रहे थे और सुनते भी क्यूँ नहीं। एक बच्चा जब किसी बड़े और जानकार आदमी से टक्कर की बहस करे तो कौन नहीं सुनना चाहता।

पर इस बार शंकर चचा भी खुद को बोलने से नहीं रोक पाए।

“तू पढ़ लिख ले रे पगले, अच्छी तरह से पढ़ लिख लेगा तो तू तरक्की कर लेगा बड़ी तेज बुद्धि के मालूम पड़ते हो। ये रद्दी वड्डी छोड़ो और पढाई में ध्यान दो क्यूंकि रद्दी के चक्कर में रहे तो जिंदगी महज चंद रूपये की रह जाएगी। लेकिन अच्छे से पढ़ लिख गये तो ज़िन्दगी में बहुत कुछ हासिल कर सकते हो।”

“जी शुक्रिया चचा ....आज कल की पढाई से मैं बेशक वो सारी चीजें हासिल कर लूं पर शायद आज कल के स्कूल में वो नहीं सिखाया जाता जिसकी दरकार है।”,

अभी पहली लाइन बोली ही थी की शंकर चाचा बोल पड़े– “तो तुम्हें और क्या चाहिए और स्कूल में ऐसा क्या नहीं सिखाया जाता है जिसकी तुझे दरकार है ?”

“मौलिक शिष्टाचार ”

“और कुछ अलग करने की सलाह।”

“मतलब ? ?”, पाण्डेय जी फिर कूद पड़े दंगल में।

“क्या सिखाते हैं आज कल के स्कूल .... क से कबूतर से शुरू करते हैं और ज्ञ से ज्ञानी बना के छोड़ता है लेकिन फिर अंग्रेजी का धौंस जमाते हुए a for apple से शुरू और z for zebra बना के छोड़ती है।”

पढ़ो-लिखो, नौकरी लो... हमें शुरू से ही नौकर बनने की ट्रेनिंग दी जाती है और ऐसे बताया जाता है जैसे जिंदगी का अंतिम पड़ाव यही हो, नौकरी लेना।

हम भी बुदबक अपना टैलेंट का कद्र किये बगैर दुसरे की सेवा करने में लगे हैं खुद की छोड़ के।

पाण्डेय जी हल्की मुस्कान के साथ- “ज़िन्दगी के असल रंग से वास्ता नहीं पड़ा है तुम्हारा इसीलिए ऐसी बातें कर रहे हो। और तुम ही क्यों तुम्हारे उम्र का हर लड़का अपनी मन का करना चाहता है। जो चीज़ बढ़िया लगे वही करेंगे, हर रोज़ नए नए पेशे में जाने की योजनायें और चाहत बढते रहती है और फिर असल मुद्दे से भटक जाते हैं। परिवार की जिम्मेदारी जब कन्धों पर पड़ती है तो इंसान अपनी सारे शौक ताक पर रख, जो भी काम मिल जाता है वही कर अपने परिवार की देखभाल में लग जाता है। और हम जैसे जो बाप होते हैं न, खुद की और एवं शंकर चाचा की ओर इशारा करते हुए, वो अपने बच्चों के उपर कोई बोझ नहीं डालते बल्कि वो उनमें घर की जिम्मेदारी डालने की कोशिश करते हैं ताकि उनके उपर से थोड़ा बोझ कम हो सके।”

पाण्डेय जी की बात ज्यों ही खत्म हुई सामने खड़े राहुल की नज़र अपने पिता पर गयी जो अक्सर उसे अपने काम में हाँथ बटाने को कहते रहते हैं पर ये जनाब कोई न कोई बहाना कर वहां से फुर्र हो जाते हैं पर अभी वो अपनी नज़रें गड़ाए खड़ा हो गया था। पाण्डेय जी की बात ने शायद उसपर कुछ असर डाला था।

“परिवार की जिम्मेदारी की बात कही ना चाचा आपने। तो वो मेरे कन्धों पर 4-5 साल पहले ही आ गयी है और मैं इसके लिए किसी को दोषी भी नहीं ठहराता। भगवान पर विश्वास है मुझे अगर उसने मुझे ऐसे घर में जन्म दिया जहाँ गरीब लोग रहते हैं तो उसमे मेरे माँ बाप का क्या दोष ? तो मैं अपने माँ बाप को कभी इस बात के लिए नहीं कोसता बल्कि इस बात के लिए शुक्रिया करता हूँ कि कम से कम इस काबिल बनाया तो कि मैं अपनी सोच के हिसाब से काम कर सकूं। इतना बड़ा तो कर दिया अच्छे से और क्या चाहिए। हाँ ,कुछ और काम हो सकते थे जैसे अगर वो पैसे बचा कर अच्छे से परिवार चलाते तो जो मैं आज जो करने की सोंच रहा हूँ वो मुझे नहीं करना पड़ता मैं कुछ और कर रहा होता।

खैर कहते हैं न जो मिला है उसी में खुश रहना चाहिए। तो मैं बहुत खुश हूँ, नहीं तो मुझ जैसे कई बच्चों को तो ये दुनिया देखनी भी नसीब नहीं होती। कम से कम मैं उन अभागों में तो नहीं ही हूँ। और रही दूसरी बात की तो मैं आपके उस बात से इत्तेफाक नहीं रखता की अगर आपके हालात अच्छे नहीं हैं तो कुछ भी करने लग जाओ। हाँ, परिवार की देखभाल करनी अलग बात है और सपनों को हासिल करना ये ये अलग बात है। अभी हालात ख़राब है तो क्या मैं अपने सपनों को मर जाने दूं ? यही होता है अक्सर हम जैसे लोगों के साथ, हमें बचपन से ही कमजोर चीजों की आदत डलवा दी जाती है। हमारे स्कूल में बताया जाता है अच्छे से पढ़ोगे नहीं तो अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी। घर में भी वही हाल अच्छे से पढ़ोगे नहीं तो अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी। अच्छे से पढ़ लो, तो फिर वही लोग कहेंगे जो मिलेगा रख लो। कर लो वही और हम यही शिकस्त खा जाते हैं क्यूंकि हमें मालिक नहीं, नौकर बनने की ट्रेनिंग बचपन से ही दे दी जाती है और फिर हम से कुछ बड़ा करने की उम्मीद की जाती है।”

एक ही सांस में काफी बातें कह गया था वो। कुछ देर रुका, कुछ पल की शांति हुई, और फिर से बोल पड़ा- “चाचा ,मुझे लगता है कुछ भी करने को कहने से अच्छा है उनका हौसला बढ़ाया जाए की अपने सपनों पर ध्यान गड़ाए रखो। इस कदर लगे रहो की जब मौका मिले तो फिर वो मौका हाथ से छुटने ना पाए।”

और फिर गहरी सांस भरते हुए बोला- “चचा,वैसे तो आप सब मुझसे ज्यादा तजुर्बेकार है मगर मुझे लगता है हम जैसे बच्चों के लिए और कोई भी बच्चे के लिए उनका माँ बाप का उनके सपनों में विश्वास होना बेहद जरूरी है। यकीं मानिए जिन बच्चों के सर पर उनके माँ बाप का प्यार और उनके सपनों के उपर विश्वास होता है वो बच्चे बहुत आगे तक जाते हैं।”

इस बार शंकर चाचा, राहुल को प्यार से इस कदर देख रहे थे मानो अब वो भी राहुल को वो करने के लिए प्रेरित करेगा जिसकी रट वो हर दिन करता रहता है जब भी उसे काम में हाँथ बटाने को कहता है। पर कमाल की बात तो ये थी की वहां चल रहा संवाद अब आम संवाद से कितना उपर उठ चुका था। वहां मौजूद लोगों को देख के लगाया जा सकता था। सारे लोग शांति से ध्यानपूर्वक ऐसे सुन रहे थे मानो कोई दिग्गज नेता या फिर कोई बेहतरीन प्रवक्ता बोल रहा हो पर आम तौर पर कौन विश्वास कर सकता था कि वो एक रद्दी वाले को ध्यान से सुन रहे थे। वैसे कुछ तो इस बात से आश्चर्य हो कर सुन रहे थे कि एक रद्दी वाला इस कदर की बातें कर रहा है; वही दूसरी ओर कुछ लोग इस लिए सुन रहे थे कि वो इस कदर की बातें वो कर कैसे पा रहा है ?

पाण्डेय जी उससे काफी प्रभावित होते हुए दिखाई पड़ रहे रहे थे।

तभी वहीं खड़े किसी ने पूछा– “तो तुम्हें क्या लगता है अगर कोई माँ बाप अपने बच्चों को परिवार की आर्थिक टंग से उठने के लिए काम करने को कहते हैं तो वो गलत है ? ये तो उनका फ़र्ज़ बनता है उनकी जिम्मेदारियों से अवगत कराना। अगर ऐसा है तो क्या करना चाहिए ? वैसे अब्दुल कलाम साब भी अखबार और इमली दाने बेचा करते थे बचपन में। उनके बारे में क्या ख्याल है ?”

“नहीं,नहीं, मैंने ऐसा तो नहीं कहा की माँ बाप गलत हैं और जिम्मेदारी को बताना ये उनका फ़र्ज़ नहीं, हर माँ बाप का हक है बताने का पर मुझे लगता है कि हर किसी का कोई न कोई सपना जरूर होता है और उस सपनों को हासिल करने के लिए डटे रहना ये जिम्मेदारी उस बच्चे और इंसान की है और उस बच्चे के सपनों पर विश्वास करने की जिम्मेदार उनके माँ बाप की है और रही बात कलाम साब की तो हर कोई कलाम या शास्त्री नहीं होते। तो सब को कलाम बनने की सलाह दे सकते है पर वो कलाम जैसे बन पाए ये कह नहीं सकते।”

“भाई तू इतनी सारी बड़ी बड़ी बातें करनी कहाँ से सीखी ? बड़ा होकर जरुर नेता बनेगा ?”, साइकिल बनवाने आये एक लड़के ने उससे पूछा।

उसने भी हँसते हुए जवाब दिया-“नेता ! नहीं,नहीं इसका अभी कोई विचार नहीं है। और हाँ... मैं रद्दी अखबार में लेखकों और संपादकों के लेख के साथ साथ जो मोटिवेशनल कहानियां होती है उसको पढ़ता हूँ और खुद को प्रेरित करता रहता हूँ।”

ये लीजिये पांडे जी आपका काम हो गया। शंकर चचा की आवाज़ ने जैसा सारा माहौल अपनी और खीच लिया। सारे लोग अब उन्हें देखने लगे।

उधर पाण्डेय जी उठ खड़े हुए और रद्दीवाला भी।

“अच्छा चलते चलते अंतिम सवाल, तुम्हें क्या बनना है ? तुम किस चीज़ का सपना देखते हो ?”,पाण्डेय जी शंकर चाचा से पैसे पूछे फिर पैसे दे जवाब का इंतज़ार करने लगे।

जवाब नहीं देने पर पाण्डेय जी ने फिर बोले- “जवाब नहीं दिया ? तुम किस चीज़ का सपना देखते हो ?”

अपना रद्दी उठाते हुए बोला- “मैं किसी चीज़ के सपने नहीं देखता।”

“तो अभी तो सपनों के बारे में कह रहे थे की हर किसी का कोई न कोई सपना होता जरुर है। अभी तुम कह रहे हो की हम किसी चीज़ का सपना नहीं देखते। तो क्या तुम्हारा कोई सपना नहीं है ?”

“मैंने ऐसा कब कहा की मेरा सपना नहीं है।”

“पर अभी तो तुमने कहा की तुम किसी चीज़ का सपना नहीं देखते।”

“हाँ, मैं किसी चीज़ का सपना नहीं देखता। मैं परिवर्तन का सपना देखता हूँ। ठीक है चचा, फिर कभी मिलेंगे अभी काफी देर हो गयी है।”

“अच्छा ठीक है पर जाते जाते एक सलाह देना चाहूँगा। तुमने थोड़ा पढ़ा है तो तुम इतने अच्छे हो गये हो। सोचो तुमने अच्छे से आगे की पढ़ाई कर ली तो और कितना निखार आएगा तुममें। और हाँ, पढ़ लिख कर अगर तुम्हें नौकरी नहीं करनी तो मत करना ये तुम्हारे उपर है पर आगे की पढ़ाई जरुर करो।”

और फिर वो हल्की मुस्कान लिए रद्दी वाला, रद्दी वाला...की आवाज़ लगता दूर कहीं गलियों में गुम हो जाता है।


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