दीवार

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गोण्‍डा जिले के ठाकुर गजराज सिंह बहुत ही धूर्त और एक खुर्राट किस्‍म के इंसान थे। उनकी अर्धांगिनी सुमन भी उन्‍हीं के नक्‍शे कदम पर चलने वाली थी। पति-पत्‍नी दोनों ही जातिपाँति की कुरीतियों को बहुत मानते थे। क्‍या मजाल कि कोई गैर ब्राह्‌मण व्‍यक्‍ति उनकी ड्‌योढ़ी पार कर जाए। जातिपाँति का इतना भेदभाव कोई कथित ब्राह्‌मण भी न करता होगा।

दरअसल कथित ब्राह्‌मण वर्ग इतना तो समझदार है ही कि वह अच्‍छी तरह जानता है कि आज के जमाने में जातिपाँति केु फेर में पड़े रहने से अपना कोई कामकाज नहीं हो पाएगा इसलिए इस वर्ग ने जातिगत भेदभाव को भुलाकर अपना कामधंधा करा लेने में ही अपनी भलाई मान लिया है लेकिन जातिपाँति के गहरे दलदल में फँसे लोग अभी तक इसी में पड़े हुए हैं। वे इससे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। उनके दिलो दिमाग से जातिपाँति का भूत निकलने का नाम ही नहीं ले पा रहा है। बल्‍कि यह कहिए कि वे इससे छुटकारा मिलने का प्रयास ही नहीं करते हैं।

जो व्‍यक्‍ति इस कुरीति से बाहर निकलकर समतावादी रुख अपना लेता है उसका कोई कामकाज नहीं रुकता है और वह समाज में आगे निकल जाता है और वह प्रगति-पथ पर सदैव अग्रसर रहता है मगर जो इंसान जातिपाँति के चक्‍कर में ही पड़ा रहता है उसका कामधंधा तो रुकता ही है उसकी खेतीबाड़ी भी चौपट हो जाती है। कथित तौर पर शूद्र कहे जाने वाले लोग ऐसे आदमी की बुराई करते हैं और उसका कामकाज करने से कतराते हैं। हमारे संविधान में हर मनुष्‍य को एक समान मानने की हिदायत दी गई है। जो मनुष्‍य इसे सच्‍चाई को भलीभाँति समझ चुका है वह किसी से किसी तरह का जातिगत भेदभाव नहीं करता है लेकिन इसके विपरीत जो इस सच को झुठलाने की कोशिश करता है उसे यदाकदा बहुत अपमानित भी होना पड़ता है।

समय हमेशा बदलता रहता है और कभी एक जैसा नहीं रहता है। कभी-कभी ऐसा वक्‍त भी आ जाता है कि उसे सरेआम जलील होना पड़ता है। वह इतना अधिक शर्मिंदा होता है कि समाज में किसी को मुँह दिखाने के काबिल भी नहीं रह जाता है। आज के जमाने में जब जातिपाँति का कोई महत्‍व नहीं रह गया है तब ऐसे में इस कुप्रथा को ढोते रहना अक्‍लमंदी नहीं है। जितना जल्‍दी हो सके इस कीचड़ से बाहर निकलजाने में ही सबकी भलाई है। आज वही व्‍यक्‍ति सुखी रह सकता है जो इससे मुक्‍त हो जाए और सबको अपने समान समझे।

ठाकुर गजराज सिंह जातिपाँति के दलदल में फँसे होने पर भी शिक्षा का महत्‍व बखूबी समझते थे इसलिए अपने इकलौते पुत्र सर्वराज सिंह को भलीभाँति पढ़ालिखाकर काबिल बना दिए। अपनी दीक्षा-दीक्षा पूरी करने के बाद सर्वराज सिंह सूबे में ही पुलिस कप्‍तान बन गए। ऊँचे ओहदे की नौकरी मिलते ही एक धनाढ्‌य परिवार में उनका विवाह भी हो गया। अपनी पत्‍नी मीनाक्षी को पाकर वह अत्‍यंत प्रसन्‍न थे। सर्वराज सिंह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे ही और उनके कोई भाई और बहन न थी।

विवाह होने के बाद सर्वराज सिंह को भी कोई औलाद पैदा न हुई। विवाह के कई साल गुजर जाने के बाद उनकी पत्‍नी मीनाक्षी गर्भवती हुई और समय आने पर एक पुत्री पैदा हुई। उसका नाम उन्‍होंने चंचला रखा। चंचला के जन्‍म के बाद फिर कोई बेटा और बेटी पैदा न हुई। इस प्रकार सर्वराज सिंह भी एक ही संतान के पिता बनकर रह गए। ठाकुर गजराज सिंह के पास सैकड़ों बीघे पुश्‍तैनी खेतीबाड़ी और बाग-बगीचे थे। गोण्‍डा, लखनऊ और कानपुर जैसे शहरों में उनके पास महलनुमा कई हवेलियाँ भी थीं। कहने का मतलब यह कि उनके पास धनधान्‍य की कोई कमी न थी और इलाके के जानेमाने रईस जमींदार थे।

जब ठाकुर सर्वराज सिंह की बेटी मीनाक्षी का जन्‍म हुआ तो पूरे इलाके में लोगों को लड्‌डू बाँटे गए और मित्र, रिश्‍तेदारों को बुलाकर स्‍वादिष्‍ट व्‍यंजन की खूब दावतें दी गईं। घर में धन-दौलत की कोई कमी तो थी नहीं इसलिए स्‍कूल जाने लायक होने पर सर्वराज सिंह ने मीनाक्षी को लखनऊ के एक नामीगिरामी बोर्डिंग स्‍कूल में दाखिल करा दिया। वह वहीं पढ़नेलिखने लगी। गोण्‍डा और बस्‍ती नेपाल की सीमा पर होने के कारण बहुत से गरीब नेपाली लोग इन स्‍थानों पर होटल, रेस्‍तरां और ढाबों पर काम करके अपना गुजर बसर करते हैं।

उनमें से बहुत से लोग वहीं बस भी गए हैं। सर्वराज सिंह के पुश्‍तैनी मकान के आसपास भी बहुत से नेपाली रहते हैं। मनुष्‍य के जीवन पर उसके रहन-सहन और खानपान का बहुत असर पड़ता है इसलिए कहा गया है कि जैसा देश, वैसा वेश और जैसा खाए अन्‍न वैसा बने मन। पिछले कई सालों से लोगों का रहन-सहन और खानपान बिल्‍कुल बदल चुका है। ऐसी हालत में यह जाहिर ही है कि मनुष्‍य का जैसा रहन-सहन और खानपान होगा वह वैसा ही बनेगा भी। इससे बच्‍चों का जीवन भी तेजी से बदलता जा रहा है।

1990 के बाद से मनुष्‍य के रहन-सहन और खानपान में जो बदलाव आया है उससे बच्‍चों का जीवन बहुत अधिक प्रभावित हो रहा है। अब वे अपेक्षाकृत जल्‍दी जवान होने लगे हैं। उन्‍हें ऐसा बनाने में फिल्‍म, सीरियल और नाटक भी अपना प्रभाव डाल रहे हैं। उनके जीवन पर संस्‍कारहीन पाठ्‌य पुस्‍तकों का प्रभाव भी स्‍पष्‍ट रुप से देखा जा सकता है। आज के लेखकगण ज्‍यादातर व्‍यावसायिक हो गए हैं।

आधुनिकता के नाम पर आजकल बिल्‍कुल उलूल-जुलूल साहित्‍य ही लिखा जा रहा है। आज समाज से किसी का कोई सरोकार नहीं रह गया है। जिसके जी में जो आ रहा है वह उसे ही लिखने को उतारु हो गया है। लेखक को हमेशा समाज को एक अच्‍छी दिशा देने का काम करना चाहिए। इन सबके अलावा रही-सही कसर हमारे इंटरनेट और मोबाइल ने पूरा कर दिया है। अब बच्‍चे दिनरात इन्‍हीं से चिपके रहते हैं। ऊपर से मां-बाप अपने बच्‍चों को समय न देकर उनसे दूरी बनाए रहते हैं। इसका भी बच्‍चों के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इस बदले परिवेश का असर मीनाक्षी पर भी पड़ा। वह इनसे अछूती न रही और यह स्‍वाभाविक भी है।

इंटरमीडिएट करते-करते मीनाक्षी अठारह वर्ष की और बालिग हो गई। इसी बीच एक गरीब नेपाली युवक विजय बहादुर से उसकी मुलाकात हो गई। विजय बहादुर एक नेपाली तरुण था ही वह एकदम गोरा-चिट्‌टा और हृष्‍ट-पुष्‍ट भी था। मीनाक्षी भी गजब की खूबसूरत और एक अत्‍यंत हसीन युवती थी। एक-दूसरे को देखते ही वे परस्‍पर आकर्षित हो गए। दो-चार मुलाकातों में ही वे एक-दूसरे को अपना दिल दे बैठे।

विजय बहादुर ने मीनाक्षी के साथ तालमेल बढ़ाने से पहले खुद को एक नेपाली होने की दुहाई भी दी लेकिन मीनाक्षी पर इसका कोई असर न पड़ा। उसने विजय बहादुर से एकदम स्‍पष्‍ट कह दिया कि मुझे ऐसी बातों सकुछ भी लेनादेना नहीं है। मुझे अपना अच्‍छा-बुरा सब अच्‍छी तरह मालूम है। तब विजय बहादुर ने उससे कहा कि देखो तुम्‍हारे पिताजी कोई मामूली इंसान नहीं बल्‍कि एक पुलिस कप्‍तान हैं और वह इस बात को किसी भी सूरत में बर्दाश्‍त न कर सकेंगे। वह हम दोनों के साथ कुछ भी कर सकते हैं। वह हमारा जीवन नरक बनाकर रख देंगे।

जवानी दीवानी होती ही है इसलिए विजय बहादुर की बातों पर मीनाक्षी ने कोई ध्‍यान नहीं दिया और उसे दरकिनार करते हुए वह उससे बोली-

"तुम मेरे पिताजी की चिंता मत करो। अगर वह पुलिस कप्‍तान हैं तो दूसरों के लिए हैं हमारे लिए नहीं। मैं सब कुछ सँभाल लूँगी और कुछ भी न होगा।"

तब विजय बहादुर ने उसे समझाने का बहुत प्रयास किया मगर वह हरगिज न मानी। मानो उसके सिर पर सचमुच भूत सवार था। धीरे-धीरे एक-डेढ़ साल गुजर गए। उनका मिलना जुलना चालू था। विजय उससे जितना दूर भागता उतना ही मीनाक्षी उसके पास पहुँच जाती। वह उसे उतना ही अधिक अपने करीब पाता। पहले तो वह उससे जितना बच सकता था उतना बचने का यत्‍न किया लेकिन जब मीनाक्षी हाथ धोकर उसके पीछे ही पड़ गई तो हार मानकर वह भी चुप बैठ गया। आखिरकार दोनों के बीच प्रेम की पेंगे बढ़ने लगी।

इश्‍क और मश्‍क कभी छिपाने से नहीं छिपता है। देर-सबेर लोगों को इसका पता चल ही जाता है। जब तक बात छिपी रही और किसी को कानोकान भनक न लगी तब तक वे आराम से आपस में चोरी-चुपके मिलते जुलते रहे परंतु जब भेद खुलता नजर आने लगा तो मीनाक्षी ने विजय बहादुर से घर से भाग चलने को कह दिया। उसने उसे घर छोड़ने के लिए विवश कर दिया।

अंततः एक दिन घर से पच्‍चीस लाख नकद रुपए और कुछ गहने वगैरह लेकर मीनाक्षी विजय बहादुर के पास जा पहुँची। वह अपने घर से इतना ज्‍यादा धन ले गई कि उतने में उसका अच्‍छा से अच्‍छा विवाह हो जाता। वहाँ जाकर वह उससे बोली-

"अब जहाँ ले चलना है मुझे वहाँ लेकर चलो। मैं तैयार होकर आ गई हूँ।' विजय बहादुर भी उसे दिल दे ही चुका था इसलिए वह भी अपना घर-परिवार छोड़ने को मजबूर हो गया। अब घर त्‍यागने के अलावा उसके पास कोई दूसरा चारा न बचा था। आखिर वह उसे लेकर घर से निकल पड़ा और रेलगाड़ी का टिक कटाकर हरिद्वार चला गया। वहाँ से दोनों नैनीताल चले गए। फिर मुंबई और गोवा घूमने चले गए।

उधर दोनों के भागने की खबर मिलते ही कप्‍तान साहब आग बबूला हो गए। उन्‍हें उनकी यह जुर्रत हरगिज पसंद न आई। आखिर जातिपाँति के पुजारी ठाकुर जो ठहरे। उनका पारा सातवें आसमान पर इस तरह पहुँच चुका था कि अगर वे उस वक्‍त उन्‍हें मिल जाते तो वह उनकी जान भी ले लेते। उन्‍होंने सोचा कि जब मैं बड़े-बड़े लोगों की हैकड़ी बंद कर सकता हूँ और उनकी हालत खस्‍ता कर सकता हूँ तो इस नेपाली छोकरे की औकात ही क्‍या है। उन्‍होंने पास के पुलिस थाने में मीनाक्षी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखा दी और थानेदार से बोले-

"यह मेरी अपनी बेटी का मामला है इसलिए चाहे जैसे भी हो वह एक सप्‍ताह के अंदर ही मेरे सामने होनी चाहिए। इस काम में तनिक भी लापरवाही न होने पाए वैरना अपनी खैरियत मत समझना।"

पुलिस तो आखिर पुलिस ही है। वह किसी को अपना-पराया नहीं समझती है और सबके साथ लगभग एक जैसा ही व्‍यवहार करती है। दरअसल हमारी पुलिस का काम करने का तरीका बड़ा ही अनोखा है। वह हर मामले को अपने ही तरीके से निपटाती है। मामला एक कप्‍तान का था इसलिए दो-चार पुलिस वाले बिना मतलब इधर-उधर यूँ ही टापते रहे और हार-थककर बैठ गए। इतने बड़े देश में मीनाक्षी और विजय बहादुर को ढूँढ़ना इतना आसान नहीं था जितना कि कप्‍तान साहब समझ रहे थे।

इधर लगभग आधे देश का भ्रमण करके एक महीने बाद विजय और मीनाक्षी दिल्‍ली वापस आ गए और एक अदालत में जाकर अदालती शादी कर लिए। उनके पास पैसों की तो कोई कमी थी नहीं इसलिए इस काम के लिए उन्‍होंने एक वकील को उसका और दो फर्जी गवाहों का खर्चा वगैरह पचास हजार रुपए देकर उनकी तलाश में डंडा फटकारने वाले पुलिस वालों को भी एक लाख रुपए नजराना दे दिया। वे आगे-आगे चल रहे थे तो पुलिस चुपचाप मुट्‌ठी बाँधे उनके पीछे-पीछे चल रही थी। अदालती विवाह संपन्‍न होते ही दोनों एकदम निश्‍चिंत हो गए। उनका सारा का सारा खटका मिट गया। अब अदालत भी उनकी और पुलिस भी। अब उन्‍हें रोकने-टोकने वाला कोई भी न था।

अपने पीछे पुलिस के पड़ने की भनक लगते ही मीनाक्षी अपने कप्‍तान पिता सर्वराज सिंह को फोन करके कहा-

"पापाजी! मैंने विजय बहादुर नाम के एक लड़के से दिल्‍ली की एक अदालत में विवाह कर लिया है और अब मैं घर आ रही हूँ। हमारे वहाँ पहुँचने पर आप कृपया कोई तमाशा मत कीजिएगा। यही आपसे गुजारिश है बस। अब हमें खोजने के लिए आपको परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। अब आप बिल्‍कुल शांत होकर बैठिए। हम दोनों कल सुबह आपके पास आ जाएँगे। अगर आप किसी तरह का बवाल करेंगे तो इसमें आपकी ही बदनामी होगी। मैं यह फैसला बहुत सोच-समझकर किया है। अगर वहाँ हमारा आना आपको किसी भी तरह नागवार गुजरे तो तो अभी साफ-साफ बता दीजिए और फिर हम नहीं आएँगे। यदि आप हमें सहर्ष स्‍वीकार करने को राजी हों तभी हमें अपने पास बुलाइए वरना एकदम स्‍पष्‍ट मना कर दीजिए। हम दोनों आप सबकी खुशियों के लिए ही आना चाहते हैं, आपको चिढ़ाने के लिए नहीं इसलिए हमारे प्रति अपने मन में किसी प्रकार का कोई खोट न रखिएगा।"

कप्‍तान साहब के पास और कोई संतान तो थी नहीं और जो इकलौती बेटी थी वह भी नदारद हो चुकी थी अतएव मीनाक्षी की बातें सुनते ही उनका सारा गुस्‍सा देखते ही देखते बर्फ की तरह पिघल गया। उनका दिल पसीज गया। वह तुरंत नरम रुख अपनाकर बोले-

"बेटी! कोई तुम दोनों को अब कुछ नहीं कहेगा। जो काम हमें करना था वह काम जब तुमने खुद कर लिया है तब इसमें हमारे टाँग अड़ाने को कोई सवाल ही नहीं है। तुम दोनों को अपनी जिंदगी खुद बितानी है। वह लड़का जब तुम्‍हें पसंद है तो हमें भला क्‍या ऐतराज हो सकता है। अरे पगली! हम सब तो तुम दोनों का सामाजिक रुप से विवाह करेंगे। हमें तो एक काबिल दामाद की जरूरत थी। तुम दोनों इस घर-परिवार को सँभाल लो बस। इससे बढ़कर हमारे लिए भला और क्‍या हो सकता है। तुम लोगों को घबराने और डरने की कोई जरूरत नहीं है। तुम दोनों बेखटके आराम से आओ। तुम्‍हारे घर छोड़ने के बाद हम लोग जरा भावुक हो गए थे। भावुकता में आकर पुलिस कार्रवाई कर दी थी।"

अपने जन्‍मदाता कप्‍तान पिता का आश्‍वासन पाकर मीनाक्षी उनसे बोली-ठीक है पापाजी! जैसी आपकी इच्‍छा। हम दोनों अब आ रहे हैं।

इसके पश्‍चात दोनों रेलगाड़ी की टिकट लेकर हँसी-खुशी गोण्‍डा के लिए रवाना हो गए। उनकी सारी रात सफर में ही बीत गई और सुबह होते ही वे गोण्‍डा पहुँच गए। वहाँ पहले से ही उनके सामाजिक विवाह की सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी। रेलवे स्‍टेशन पर उनके उतरते ही बड़े उत्‍साह के साथ लोगों ने उनका स्‍वागत किया और एक बड़ी गाड़ी में बिठाकर उन्‍हें बाजेगाजे के साथ एक बड़े होटल में ले गए। वहाँ उनका विवाह संस्‍कार पूरा हुआ। जातिवादी ठाकुर परिवार ने उन्‍हें बड़े हर्ष से स्‍वीकार कर लिया।

विवाह के बाद विजय बहादुर सामाजिक रुप से कप्‍तान साहब के घराने का दामाद बन गया। साथ ही वह उनकी सारी संपत्‍ति का इकलौता वारिस भी बन गया। कप्‍तान साहब ने अंततोगत्‍वा अपना सब कुछ उनके नाम कर दिया। हालांकि कप्‍तान साहब जोश और आक्रोश में आकर उन्‍हें अपने रास्‍ते से हटवा सकते थे लेकिन कोई ओर वारिस न रहने से वह जातिपाँति के बंधन से मुक्‍त होकर उन्‍हें अपनाने को विवश हो गए। उनके दिल से जातिपाँति की दीवार हमेशा के लिए ढह गई। अगर वह कुछ और करते तो इसमें हर तरह से नुकसान उन्‍हीं का था।


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