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दीवान जी की हवेली

दीवान जी की हवेली

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ये कहानी है उत्तर प्रदेश के एक गाँव के जमींदार की,

हालांकि भारत मे जमींदारी प्रथा सन 1955 में खत्म कर दी गयी, और ज़मींदारों के अधिकार छीन लिए गए

लेकिन फिर भी उनका रुतबा और वर्चस्व बहुत सालों तक लोगो के दिल और दिमाग में रहा।

नारायण दास उस गाँव के ज़मींदार थे और लोग उन्हें दीवान जी कहकर बुलाते थे। दीवान जी एक बहुत बड़ी हवेली में रहते थे। बेटों के बड़े होने के बाद दीवान जी ने उसके तीन हिस्से करके एक एक हिस्सा उन्हें दे दिया और खुद उसके बीच वाले हिस्से में अपने सबसे बड़े बेटे के साथ रहते थे। उनके तीन पुत्रों में सबसे बड़े थे ज्ञानचंद, मझले प्रहलाद और सबसे छोटे करमचंद।

डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद ज्ञानचंद एक तांत्रिक के प्रभाव में आकर तंत्र विद्या सीखने लगे और उन्होंने कभी शादी नहीं कि।लेकिन लोग उन्हें डॉक्टर साब कहकर ही बुलाते थे।

दीवान जी एकदिन अचानक रहस्यमय तरीके से अपने कमरे में मृत पाए गए। दीवान जी के बाद उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी मिला कर अब ये बीस लोगों का परिवार था। जिसमे उनके तीनों बेटे, दो बहुएं चार बेटियाँ और उनके बच्चे थे।एक उनके पुस्तैनी नौकर घनश्याम को मिलाकर अब इस हवेली में इक्कीस लोग थे। गाँव की प्रथा थी कि गाँव में हुई किसी भी मौत में उनके दामाद नहीं आते थे।

दीवान जी की मौत के बाद उनके बड़े डॉक्टर ज्ञानचंद ने अपने पिता की अस्थियों को गंगा में बहाने से इनकार कर दिया और कहा कि वो पिताजी का अस्थि विसर्जन और अंतिम भोज 21 दिन के बाद करेंगे।उन्होंने 21 दिन अपने आपको दीवान जी के कमरे में

जहाँ उनकी मृत्यु हुई, उन अस्थियों के साथ बंद कर लिया।

इन अस्थियों के माध्यम से वो मायावी शक्तियों को सिद्ध करना चाहते थे। इक्कीस दिन तक रोज़ उनका नौकर घनश्याम गाँव के बाहर से एक कौव्वा पकड़ के लाता और रात को ठीक 11 बजे कमरे की बाहर की और खुलने वाली खिड़की से डॉक्टर साब का हाथ बाहर आता और कौव्वा लेकर खिड़की बंद।

इक्कीस दिन की इस तंत्र साधना के दौरान डॉक्टर साहब ने किसी को भी अंदर आने से सख्त मना किया था। अंदर जाते वक़्त वो सिर्फ एक पानी से भरा घड़ा लेकर गए थे और 21 दिन तक उन्होंने भोजन के नाम पर सिर्फ़ कौव्वे का सेवन किया। इस दौरान कमरे से रह रह कर मंत्रोच्चारण और कव्वे के चीखने की आवाज़ें सुनाई देती थी। ये सब देखकर बाकी घरवाले बुरी तरह से डर गए। लेकिन किसी में ये सब रोकने की हिम्मत नहीं थी। पूरी हवेली में इक्कीस दिन तक मातम पसरा रहा। डॉक्टर साब ने अंदर जाने से पहले घनश्याम को एक ताला और चाबी दी और बोला के मेरे अंदर घुसते ही इस कमरे में ताला लगा देना और ठीक इक्कीसवें दिन की रात 12 बजे ये ताला खोल देना।

इकीसवें दिन की रात 11 बजे जब कौव्वा लेने के लिए खिड़की नहीं खुली और मंत्रोच्चारण की आवाज़ें नहीं आयी तो घनश्याम को संदेह हुआ और उसने हवेली के बाकी लोगो को बताया। उनके कमरे का दरवाजा खटखटाया गया लेकिन कोई आवाज़ नहीं, आखिर में घनश्याम से बोलकर दरवाजे के बाहर लगा वो ताला खुलवाया गया। कमरे के अंदर घनश्याम के साथ डॉक्टर साब के दोनों भाई गए।

लेकिन डॉक्टर साहब कमरे में नहीं थे और ना ही दीवान जी की अस्थियोँ का कलश। इक्कीस दिन तक पहुंचाए गए कौव्वों का भी कोई अवशेष नहीं। दोनों भाई और घनश्याम हैरान थे के डॉक्टर साब बंद कमरे से कैसे निकले और कहाँ गए सबने डॉक्टर साब को बहुत आवाज़ दी आसपास हर जगह देखा लेकिन डॉक्टर साब नहीं मिले।

थक कर जब सब वापस आकर बैठ गए तभी 12 बजे और कमरे से डॉक्टर साहब के मंत्रोच्चारण की आवाज़ गूंजने लगी और उसके साथ कौव्वे के चीखने की आवाज़ें। तीनों बहुत बुरी तरह से डर गए और भाग कर कमरे से अंदर गये।लेकिन अंदर अभी भी कोई नहीं था। तीनों भागकर बाहर आ गये लगभग 1 घण्टे तक ऐसी ही आवाज़ें सुनाई देती रहीं। जब आवाज़ आना बंद हुआ तो वापस डरते डरते तीनों अंदर घुसे। कमरा बिल्कुल उसी अवस्था में था। दोनों भाईयों ने घनश्याम से कहकर वापस उस कमरे का ताला लगवा दिया और चाबी उसे अपने पास रखने को कह कर हवेली के दूसरे हिस्से में चले गए।

घनश्याम हवेली के बाहर एक छोटे से नौकरों वाले कमरे में रहता था। दोनों भाइयों और उनकी बीवियों ने बच्चों को किसी तरह सुलाकर रात किसी तरह डरते डरते काटी।

सुबह चाय का वक़्त हुआ और सभी लोग अपने अपने कमरे में सो रहे थे, चाय के लिए घनश्याम की कोठरी से दूध लाने की ज़िम्मेदारी आनंद की थी।आंनद करमचंद का सबसे बड़ा बेटा था जिसकी उम्र लगभग 11 वर्ष थी, घनश्याम सुबह सुबह पास के तबेले से दूध लाकर अपनी कोठरी में रखता था और वहाँ से रसोई तक दूध आनंद लाता था क्योंकि नीची जाति का होने का कारण घनश्याम का रसोई में प्रवेश वर्जित था।

आनंद जोकि दीवान जी का सबसे लाडला पोता था दीवान जी के साथ बरामदे में सोता था लेकिन दीवान जी की मौत के बाद भी उसने अंदर अपनी माँ के साथ सोने से इनकार कर दिया और अभी भी वो बरामदे में डले दीवान जी के पलँग पर ही सोता था।

आंनद घनश्याम की कोठरी में गया तो कोठरी का दरवाजा अंदर से बंद था आंनद ने दरवाजा खटखटाया लेकिन दरवाजा नहीं खुला। आनंद कोठरी के साइड की खिड़की जोकि उसकी लंबाई से थोड़ी अधिक ऊंचाई पर थी पास में पड़े एक लकड़ी के स्टूल के सहारे उस तक पहुंचा और अंदर झाँकने लगा। अंदर का दृश्य देख कर आनंद बुरी तरह से घबरा गया और अंदर हवेली की और भागा।

कोठरी में पंखे से घनश्याम के गमछे से एक कौव्वे की लाश लटकी थी। और घनश्याम का कोई अता पता नही था।

आनंद दौड़कर अंदर माँ और पिताजी वाले कमरे में आया लेकिन वहाँ भी कोई नही था। आनंद ने बिस्तर पर पड़ा कम्बल हटाया तो उसके होश उड़ गए। कंबल के अंदर उसके माँ पिताजी और छोटे भाई बहन की जगह 4 खून से लथपथ कौव्वे पड़े थे। आंनद ने पूरी ताकत से चिल्लाने की कोशिश की लेकिन उसकी आवाज़ जैसे जम गई थी। उसे सिर्फ कौव्वे की आवाज़ सुनाई दे रही थी। वो दौड़ा दौड़ा हर कमरे में गया लेकिन हर कमरे में उसे सिर्फ मरे हुए कौव्वे मिले।

कुल मिलाकर 19 मरे हुए कौव्वे। आंनद की साँसे जैसे अटक गई थी। और उसका शरीर जैसे एकदम हल्का हो गया था। एकदम घुटी घुटी चीख निकल रही थी उसका गला प्यास और डर की वजह से एकदम सूख गया था उसने बरामदे में दीवान जी के पलँग के नीचे रखे पानी से भरे ग्लास को उठाने की कोशिश की लेकिन वो ग्लास उसे बहुत भारी लगा उसने ग्लास में मुँह डाला और पानी पीना शुरू किया, पानी जैसे गले से नीचे उतर ही नहीं रहा था, एक एक बूँद किसी तरह से अंदर जा रही थी। वो पानी वहीं छोड़ कर बरामदे से बाहर भागा, किसी तरह से हवेली से निकल कर भाग जाना चाहता था। हवेली के मुख्य द्वार से पहले डॉक्टर साब का कमरा पड़ता था जिसकी खिड़की पे उसे एक कौव्वा बैठा दिखाई दिखा जो लगातार उसी को देख रहा था। ये वही खिड़की थी जिससे पिछले 21 दिनों से डॉक्टर साब हाथ बाहर निकाला करते थे।

हवेली के मुख्य द्वार का दरवाजा बंद था और उसकी सांकल तक उसका हाथ नहीं पहुंच पा रहा था उसने पूरी ताकत लगाई और उछल कर 10 फ़ीट की दीवार पर जा पहुंचा। इतनी ऊंचाई पर उछल कर पहुंचने से वो हैरानी और बदहवासी से काँपने लगा।

दीवार के नीचे पानी की हौदी थी जिसमें उसको उसका प्रतिबिम्ब दिखा और उसकी रूह काँप गयी। पानी में एक कौव्वे का प्रतिबिंब था जो दीवार पे बैठा था। और वो आवाज़ जो बार बार उसे चीखने पे सुनाई दे रही थी वो उसी की थी। वो एकदम पागल हो गया और अपनी चोंच दीवार की सतह पर मारने लगा। मारते मारते उसकी चोंच से खून बहने लगा और वो बेदम होकर पानी की हौदी में गिर पड़ा। पूरी ताकत से छटपटाने के बाद भी वो बाहर नहीं निकल पा रहा था और उसी में डूब कर मर गया। डॉक्टर साब खिड़की पे बैठा कौव्वा वापस अंदर चला गया।

अब तक इस घटना को बहुत साल गुजर चुके हैं उस हवेली में अब कोई नहीं जाता। लेकिन अभी तक हर रात वहाँ से डॉक्टर साब के मंत्रोच्चारण और कौव्वे की चीखने की आवाज़ें आती हैं।


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