रोहिणी नन्दन मिश्र

Inspirational

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रोहिणी नन्दन मिश्र

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धरम

धरम

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   चपरासी पूरन लाल मास्टर बृज किशोर सिंह को तेजी से धीवर टोले की ओर लिए चला आ रहा था। रास्ते में जो भी मास्टरजी को देखता वह विस्मित हुए बिना न रह पाता। मास्टरजी पसका के प्रतिष्ठित कान्वेंट स्कूल के प्रबंधक सह प्रधानाध्यापक थे, जहाँ बड़े-बड़े रईसों के बच्चे पढ़ते थे। वे स्वयं भी बहुत धनी थे। 

  मास्टरजी का मल्लाहों के गाँव की ओर आना लोगों में कुतूहल जगा रहा था। उन्हें गरीबों से बहुत घृणा थी। उनकी दृष्टि में निर्धन गंदी नाली के गंदे कीड़े हैं जो स्वयं ही गंदगी से निकलना नहीं चाहते। इनके सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति मैला हुए बिना नहीं रह सकता। अतः वे गरीबों को देखते ही चिढ़ जाते थे। घर व स्कूल में जो नौकर-चाकर थे, वे उनकी मजबूरी भर थे, दया नहीं।

  मरी मछलियों का गंध बिखेरता, सरयू की तलहटी में बसा, समूचा डल्लू पुरवा यानी धीवरों का टोला आज अचम्भित होने से कहीं अधिक सशंकित था। मास्टर जी को पास से गुजरता देख लोग अपने कदम ऐसे दूर खींच लेते, जैसे नाग के ऊपर सहसा पड़ते पाँव। 

  पूरन लाल गाँव के बीचो-बीच में से ले जाकर गाँव के आखिरी छोर की गली उन्हें दिखाते हुए बोला-"लो, साहब! वह रहा आपका सुखिया और उसका घर।“

बृज किशोर सिंह ने निगाह दौड़ाई। शेष गाँव की ही भाँति सामने एक फूस की झोपड़ी दिखाई दी। झोपड़ी की दीवारें कच्ची मिट्टी की बनी थी जिस पर चढ़ी गोबर की परतें कई जगह सीलन से उखड़ रहीं थीं। छप्पर पर कुम्हड़े की अधसूखी लताएँ पसरी हुई थीं। किवाड़ के सामने एक आदमी बैठा लकड़ी की नाव में कुछ कीलें ठोक रहा था। उसकी पीठ रास्ते की ओर थी।

  दोनों झोपड़ी की तरफ बढ़े चले आ रहे थे। पदचाप सुनकर आदमी कील ठोकना रोककर सामने मुड़ा। उसका चेहरा देखते ही मास्टरजी चौंक गए। यह तो वही है जो उस दिन स्कूल में नाम लिखाने आया था। मास्टर जी के मन-मस्तिष्क में पन्द्रह दिन पहले का सारा दृश्य उभर आया।

   सुबह से ही प्रवेश के लिए मारा-मारी थी। जुलाई-अगस्त में वैसे भी प्राइवेट स्कूलों का धंधा चटक जाता है। नामवर स्कूलों पर सरस्वती से ज्यादा लक्ष्मी मेहरबान रहती हैं। लंच का समय बीत चुका था। सभी बच्चे व शिक्षक अपने-अपने क्लास रूम में जा चुके थे। गार्जियन भी वापस चले गए थे। 

  पब्लिक को डील करते, बीच में कक्षाओं की ओर उठ-उठ झाँकते-झाँकते मास्टर बृजकिशोर सिंह जी थक गए थे। सो छात्रों की स्ट्रेन्थ व आय-व्यय का आगणन करते-करते वे ऊँघने लगे।    

  सहसा पूरन लाल ने जगाया-"साहब एडमिशन आया है।”

गजब की फुर्ती से मास्टरजी आँखें मींचते हुए बोले-"कहाँ है? अंदर भेज दो।”

“ साहेब ई हमरे बेटौना कय नाम डारि देउ!”- सामने से एक वृद्ध आवाज आई।

  मास्टरजी ने ऑफिस में एक दीन-हीन फटेहाल बूढ़ा और कच्छा बनियान में आठ-नौ बरस का लड़का देखा। उनके नस-नस से घृणा फूट पड़ी। क्रोध में फुफकारते हुए बोले-"कौन है?”

बूढ़ा डरता हुआ बोला-" साहेब, हम सुखिया! ई हमार मुरौहुना..अब हिंयय पढ़ी!”

"अपनी हालत देखी है। यहाँ भिखारियों का एडमीशन नहीं होता।”- मास्टरजी गरजे।

बूढ़ा अपनी टेंट से नोट निकालते हुए बोला- "बाबू, हम भिखारी नाहिं हँय। हम फीस देबै। याकर बड़ी इच्छा है, कानवेनट स्कूल मा पढ़य का। ई, लेव रुपया।”- कहकर तुड़े-मुड़े नोट को मास्टरजी की ओर बढ़ा दिया।

  मास्टरजी एक गज दूर पिछड़ गए- "चल, बाहर चल, बाहर! सरकारी स्कूल में इसका नाम लिखा!”

बूढ़े ने अपनी पगिया निकालकर उनके पैरों पर रख दी। मास्टर जी भड़क गए- "पूरन लाल! निकाल बाहर इसको। बहुत ढीठ है।”

 बूढ़ा फिर गिड़गिड़ाने लगा-"साहब हमहूँ फीस देब। हमरव बेटौनक जिंदगी बनाय देव। चाहो तौ हमसे एडवानस लै लेव!” 

मास्टर जी फिर चिल्लाए-"कहाँ मर रहा है पूरन? इसे बाहर कर।”

  पूरन लाल ने घसीटकर उसे बाहर कर दिया। वह अब भी हाथ जोड़ता रहा। गेट के बाहर आध घड़ी आस जोहने के बाद अंत में सहमे हुए मासूम का मुखड़ा चूमकर, दोनों बाप-बेटे चले गए।

“साहब, कहाँ खो गए? यही है सुखिया! इसी ने कल आपके बेटे को नदी में डूबने से बचाया था।”- पूरन लाल की आवाज सुन मास्टरजी लड़खड़ा गए। 

  अपने व्यवहार के कारण वे आज बहुत लज्जित थे। हृदय कृतज्ञता के बोझ तले दबा जा रहा था।

  सुखिया दौड़कर बँसही खाट उठा लाया। चादर का फटा कोना मोड़ते हुए बड़ी विनम्रता से बोला-" साहेब, ई पर बैठो। हमार धन् भाग! आप हमरे हिंया...!”

पुनः भीतर की ओर मुँह करके चिल्लाया-“नोखुवा की अम्मा! नउका गिलास मा पानी लै आवय, मास्टर साहेब आए हँय!”

“हाँ, सुखिया और गुड़ भी!”- कहकर वे सुखिया के पैरों पर गिर पड़े।

  सुखिया ने पैरों से उठाकर उनको सीने से लगा लिया और बोला-"नाहीं साहेब! हमार धरम ना गोड़व। आप गुरू हउ!”



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