देश में प्रवासी
देश में प्रवासी


ये बात उन दिनों की है, जब कोरोना चीन से निकल कर इटली, ईरान होते हुए भारत पहुंच कर अपनी पकड़ बना रहा था। भारत में रहने वाले मजदूर पैदल चलकर अपने घर जाने को मजबूर थे, तो वहीं दूसरी ओर सरकार विदेशो में रहने वाले मजदूर को हवाई - जहाज में बिठा कर स्वदेश ला रही थी। एक तरफ पैदल चल रहे मजदूरों को स्वदेश की पुलिस प्रवासी मजदूर कह कर राज्य की सीमा में प्रवेश करने से रोक रही थी, तो दूसरी ओर विदेशो से आ रहे भारतीयों को एयरपोर्ट पर बिना थरमल स्क्रीनिंग के ही एयरपोर्ट से एसी कॉच की बसों से उनको उनकी घर के दरवजे तक छोड़ा जा रहा था। ये भी सही था, ऐसा क्यों ना हो, आखिर कार वो इस देश के वासी जो ठारहे। पर ये कहां तक जायज़ था कि हम अपने ही देश में रह रहे उन गरीब बेबस मजदूर को प्रवासी मजदूर कहे, ये हक सरकार
को आखिर किसने दिया "भारतीय संविधान ने, या फिर उस स्याही ने जो सरकार को चुनते वक़्त सरकार से कुछ उम्मीद की थी....."उम्मीद ये कि, जब कभी मुसीबत में फंसे तो सरकार मदद को आगे आए, उम्मीद ये कि, जब कभी बेहतर इलाज की जरूरत पड़े तो सरकारी अस्पताल में हक से अपना बेहतर इलाज करवा सके, उम्मीद ये कि, जब कभी," इस पर कभी फिर अपना विचार रखेंगे, फिलहाल सवाल तो ये है, की आपको कौन ये हक दिए कि आप अपने ही देश वासी को प्रवासी बोले, जब लेने का समय था तब तो मंच पर से मेरे देशवासियों कहते नहीं थकते थे, लेकिन जब समय उन्हीं देशवासियों को देने का हुआ तो वो प्रवासी होगाए कैसे। समझ में ये नहीं आरहा की जो विदेशों में रह रहे थे, वो भारत वासी थे, तो फिर जो देश के अंदर है थे, तो वो प्रवासी कैसे हुऐ? सोचिएगा जरूर।