डिब्बा

डिब्बा

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प्रतीक के ब्याह के बाद बुआ दादी आज घर आई हैं। उनकी आदत ही है कि अपना ही राग अलापती रहती हैं। आज उनका मुद्दा है अपने ज़माने की शादियों की मिसाल देना।

“ब्याह तो हमारे ज़माने में हुआ करते थे। तीन तीन दिनों तक बारात रहती थी। एक भी रिश्तेदार ऐसा न होता था जो ब्याह में आता न था। महीनों पहले से तैयारियाँ शुरू हो जाती थी। महीनों तक हम मिठाईयाँ खाते थे फिर चाहे वो सूखे लड्डू ही क्यूँ न हो..! आजकल की तरह नहीं कि बस एक दो दिन पहले सब आएँ और बहू के गृहप्रवेश से पहले ही विदा हो जाए।”

बुआ दादी बातों के साथ-साथ अपनी अनुभवी नज़रों से रमा और नई बहू को तोल भी रही थी। बहू के चेहरे पर पसरा सन्नाटा बहुत कुछ कह रहा था। उधर प्रतीक भी पिंजरे में क़ैद पंछी सा फड़फड़ा रहा था।

“अरी ओ रमा, बेटे में ही लगी रहेगी या ये डिब्बा भी पकड़ेगी।”

“दीजिए बुआजी।” रमा ने डिब्बा पकड़ते हुए कहा।

पर बुआ दादी ने डिब्बा छोड़ा ही नहीं। “बुआजी, जब तक आप छोड़ेंगी नहीं मैं कैसे पकडूँगी ?”

“रमा, वैसे तो तू बड़ी समझदार है, सारे रीति रिवाज भी जानती है पर ये कैसे न जान पाई कि जब तक तू अपना डिब्बा यानि बेटे को नहीं छोड़ेगी, बहू उसे पकड़ेगी कैसे, पाएगी कैसे ? उनकी गृहस्थी की गाड़ी कैसे सरकेगी? जब तक तू अपने अधिकार की डोर को थोडा ढ़ील नहीं देगी तो बहू को उसके अधिकार कैसे मिलेंगे..?” बुआ दादी ने चश्मा ठीक करते हुए कहा।


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