चाय
चाय


सारा दिन बस चाय-चाय ही करते रहती हैं माताजी। रसोई में जाओ नहीं कि चाय का फ़रमान शुरू हो जाता है, अरी बहुरिया, तनिक दो घूँट चाय तो बना दे। अब कौन समझाए कि दो घूँट चाय के लिए भी तामझाम तो सारा ही करना पड़ता है। लगता है कि मेरी शादी किसी इंजीनियर से नहीं बल्कि चाय की थड़ी वालों के यहाँ हुई है और माताजी उस थड़ी की मालकिन। निशा हर रोज़ ऐसी ही बातें अदरक कूटते-कूटते खुद से बोलते रहती।
पर आज घर में मनहूसियत छाई हुई है। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है। लग रहा है कि माताजी का अंतिम समय नजदीक ही है। सभी माताजी को घेरकर बैठे हैं। पूरा परिवार माताजी से कुछ ना कुछ बात कर रहा है। लेकिन निशा जल्दी-जल्दी खाने की तैयारी कर रही है ये सोचकर कि घरवालों के पेट में कुछ तो चला जाए नहीं तो एक बार माताजी की देह शांत हो गई तो खाने पीने का कहाँ होश रहेगा किसी को भी। जो कुछ भी रसोई में दिखा, जल्दी से चढ़ा ही रही थी कि रानू आकर बोली, “चाची! माताजी बुला रहीं हैं आपको।”
“पास जाकर सुन, जाने माताजी क्या कहना चाह रही है तुझे?” पापाजी ने कहा।
“क्या कर रही थी बेटा?” टूटी-फूटी आवाज़ में माताजी बोली।
“वो .. मैं.. बस कुछ” अब कैसे बताए कि अगर आप चली गईं तो कोई भी कुछ खा नहीं पाएगा तो रसोई में जल्दी से कुछ बना रही थी।
“खाना बना रही थी क्या?”
“माताजी, वो पापाजी को शुगर है तो वो अगर भूखे रहेंगे तो बीमार हो जाएंगे, मम्मीजी को भी बीपी की दवा लेनी पड़ती है और फिर बच्चे भी हैं तो मैंने सोचा कि.....”
“हद हो गई है तुम्हारे आगे निशा, यहाँ माताजी की ये हालत है और तुम्हें खाना सूझ रहा है।” साइड में से निशा की सास ने कहा।
माताजी ने हाथ को ज़रा सा उठाकर निशा की सास को चुप रहने को कहा और फिर निशा को हाथ के इशारे से ही पूछा कि क्या बनाया है ?”
“दाल रोटी .. आप खाओगी माताजी?”
पहले तू एक बात बता। रात में चौका साफ़ करके गैस पर चायदानी और चाय चीनी के डिब्बे तू ही रखती थी ना?” बड़ी मुश्किल से माताजी के गले से आवाज़ निकली।
हाँ में सिर हिला दिया निशा ने।
“मुझे पता है माताजी कि आपको रात में भी चाय की तलब लगती है। बर्तनों की खड़खड़ और डिब्बों की आवाज़ से सबकी नींद ख़राब हो जाएगी, इस डर से आप अपनी तलब को दबाकर रखती थी। मैंने उस दिन आपकी सारी बातें सुन ली थी, जब आप ठाकुरजी से चाय की अपनी आदत को छुड़वाने की गुहार लगा रही थी। उसी दिन से मैंने रात में चाय का सामान बाहर रखना शुरू कर दिया। कोई गलती हो गई क्या मुझसे?”
माताजी के निस्तेज चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई।
“नहीं री , तू तो असली अन्नपूर्णा है मेरे घर की। बिटिया, दो घूँट चाय बना दें अदरक डाल के। क्या पता, प्राण उसी में ही अटके हों।” लड़खड़ाती साँसों को सँभालते हुए माताजी ने कहा।
आज अदरक कूटते समय निशा एकदम चुप थी।