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Prabodh Govil

Drama

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Prabodh Govil

Drama

बसंती की बसंत पंचमी- 12

बसंती की बसंत पंचमी- 12

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लेकिन एक बात थी। रोग का ख़तरा कितना भी बड़ा हो, अब फ़ोन पर बात करने का सिलसिला पहले से कहीं ज्यादा रसभरा हो गया।

अब ऐसी कोई कुंठा तो थी नहीं कि किसी के पास नौकर है, किसी के पास महरी, किसी के पास अर्दली तो किसी के पास बाई। अब तो सब अपने - अपने घर में कैद थे, और सबका एक ही मूलमंत्र- "अपना हाथ जगन्नाथ"!

अब ये जलन भी बाकी नहीं रही कि आपके तो बेटियां हैं, काम में हाथ बंटाती होंगी... यहां तो निखट्टू बेटे हैं और ऑफिस जाने के लिए हड़बड़ी मचाते पतिदेव, सब अपने ही हाथ से करना पड़ रहा है, सब की फरमाइश सुनो और चकरी की तरह पूरी करने के लिए घूमते फिरो...!

अब तो चाहें डॉक्टर साहब हों, या इंजीनियर साहब, वकील साहब हों या प्रोफ़ेसर साहब। कोई घर में पोंछा लगाता तो कोई घास को पानी देता हुआ मिलता। सबके दफ़्तर - दुकानों पर ताले।

इस मौज ने श्रीमती कुनकुनवाला का बाई न मिल पाने का दुःख कहीं दूर भगा छोड़ा।

बल्कि सवेरे के सूरज की तरह अब घर का फर्श भी हर समय चमचमाता और बर्तन भी चमकते। सड़कों पर गाड़ी - घोड़ों की रेलमपेल न होने से पेड़- पौधे भी कार्बन डाइऑक्साइड कम छोड़ते, ऑक्सीजन ज़्यादा।

ऐसा लगता था मानो पूरी दुनिया को उठा कर किसी ने सर्विसिंग के लिए वर्कशॉप में डाल दिया है और अब वह वहां से ओवरहॉलिंग करवा कर ही निकलेगी।

ये घरेलू महारानियां तो मन ही मन मनाती थीं कि अभी लॉकडाउन कुछ दिन और न खुले। बच्चे भी चौबीस घंटे नज़रों के सामने रहें और बच्चों के बाप भी कंट्रोल में।

लॉकडाउन खुलते ही तो सब आज़ाद पंछियों की तरह अपनी - अपनी परवाज़ ले लेने वाले थे।

पतियों का "वर्क फ्रॉम होम" तो जैसे गृहिणियों के लिए लाइफटाइम गिफ्ट था। काश, चलता रहे चलता रहे।



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