Akanksha Gupta

Thriller

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Akanksha Gupta

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बरसात की एक रात

बरसात की एक रात

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एक अंधेरी रात में मूसलाधार बारिश हो रही थीं। रात के बादलों से आसमान ढका हुआ था जिसकी वजह से रात और अंधेरी हो गई थीं। आसमान में चमकती हुई गरजते बादल और कड़कती बिजली मन में डर जगाने के लिए काफ़ी थीं।

शरीर में कंपकपाहट पैदा करने वाली इस बारिश में वेदान्तिका छाते से ढकी खुद को बारिश से बचाते हुए तेज कदमों से चलती जा रही थीं। उसके कपड़े पूरी तरह भीग चुके थे। इतनी रात में कोई टैक्सी या बस नहीं मिल सकती थी इसलिए वो इस रात यही ठहरने के लिए कोई सराय या छोटा होटल ढूंढ रही थीं।

थोड़ी दूर तक चलने के बाद उसे स्वीट ड्रीम नाम का एक छोटा सा होटल दिखाई दिया। उसने राहत की सांस ली और यह प्रार्थना करने लगी कि वहाँ पर एक कमरा उसे ठहरने के लिये मिल जाए। वो जल्दी से होटल के अंदर चली आई। उसने अपना छाता नीचे रखा और रिसेप्शन पर किसी के आने का इंतजार करने लगी।

थोड़ी देर बाद रिसेप्शन पर एक सत्तर-अस्सी साल के एक बुजुर्ग आये। उन्होंने वेदान्तिका को ऊपर से नीचे तक देखा। वेदान्तिका को थोड़ा अजीब लगा। वह सोच रही थीं कि उसे यहां रुकना चाहिए या नहीं लेकिन अब वह बाहर भी नहीं जाना चाहती थीं।

वह सोच में खोई हुई थी कि तभी सामने खड़े बुजुर्ग की आवाज से उसकी सोच टूटी।

“कहिये बेटा, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?” उन बुजुर्ग ने शालीनता के साथ वेदान्तिका से पूछा।

“जी मुझे आज रात को रुकने के लिए एक कमरा चाहिए। क्या मुझे मिल सकता हैं?” वेदान्तिका कंपकंपा रही थीं।

“जी बेटा, आप बिल्कुल सही समय पर आई हैं। हमारे पास एक ही जगह खाली थी। अगर आप थोड़ा और देर से आती तो शायद हम आपकी कोई मदद नहीं कर पाते। खैर आप भीग गई हैं, आप अपने कमरे में जाकर कपड़े बदल लीजिए। ये सामने वाला कमरा है।” बुजुर्ग ने उंगली से इशारा कर बताया।

“जी धन्यवाद।” वेदान्तिका ने कहा और अपना बैग और छाता लेकर कमरे की ओर चल दी। उसने कमरे का दरवाजा खोल अपना सामान अंदर रखा और बिजली जलाने के लिए अंधेरे में बटन टटोलने लगी। बटन मिलते ही उसने बिजली जलाई। 

उसने देखा कि कमरा बहुत ही साफ सुथरा सलीके से लगाया गया था। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ था लेकिन उसे ठंड लग रही थीं और उसे कपड़े बदलने की जरूरत थी इसलिए उसे यह बात बहुत अच्छी लगी।

उसने अपना बैग खोलकर कपड़े निकाले तो पता चला कि उसके बैग के साथ कपड़े भी गीले हो गए थे। वो जो कागज अपने साथ लेकर आई थी वो सिर्फ इसलिए बच गए क्योंकि उन्हें प्लास्टिक शीट से कवर किया गया था।

अब उसके पास पहनने के लिए कपड़े नहीं थे। इन हालातों में वह क्या करे, उसे समझ नहीं आ रहा था तभी उसकी नजर सामने रखी एक अलमारी पर गई जो अचानक से अपने आप ही खुल गई थी। उसने आगे जाकर देखा तो उसमें कुछ कपड़े रखे थे। उसने उसमें से एक सलवार सूट निकाल कर पहन लिया। उसके शरीर पर सूट एकदम फिट आया था जैसे उसी के लिये बनाया गया हो।

उसने कपड़े पहने ही थे कि दरवाजे पर दस्तक हुई। वह डर गई कि कौन हो सकता है? कही वह बुजुर्ग तो नहीं है? उसने डरते डरते हुए पूछा- “कौन है?”

“हम है दीदी, दरवाजा खोलिए। आपके लिये चाय लेकर आए हैं।” बाहर से किसी लड़की की आवाज आई।

वेदान्तिका ने दरवाजा खोला तो सामने एक दुबली पतली सी लड़की चाय की ट्रे लेकर खड़ी थीं। एक सफेद रंग का सलवार कमीज और लंबे खुले बाल उसकी सुंदरता को बढ़ावा दे रहे थे। उसने अंदर आते ही चाय की ट्रे कोने में रखी मेज पर रखी और खड़ी हो गई। वो वेदान्तिका को ध्यान से देख रही थी।

“और कुछ चाहिए दीदी?” उसने मासूमियत से धीमी आवाज में कहा तो वेदान्तिका को हँसी आ गई। 

“नहीं नहीं और कुछ नहीं चाहिए। वैसे तुम कौन हो?” वेदान्तिका के मन में सवाल उठ रहे थे।

“जी मैं दीपाली, वो बाहर जो मिले होंगे आपको वो हमारे बाबा है।” लड़की ने धीमी आवाज में बताया।

“अच्छा वैसे आज अगर तुम्हारा यह होटल नहीं होता तो पता नहीं मैं कहाँ जाती।” वेदान्तिका ने चाय का कप उठाकर घूंट भरते हुए कहा।

“यह रास्ता लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है दीदी। कुछ साल पहले भी एक लड़की को मार दिया था कुछ लड़कों ने मदद के बहाने से। ऐसा किसी और के साथ ना हो इसलिए बाबा ने यह होटल खोला है मुसाफिरों के लिए। वैसे एक बात पूछे, इतनी रात में आप अकेली क्यों भटक रही हैं?” दीपाली ने होटल की कहानी बताने के साथ साथ सवाल भी पूछ लिया।

”अरे कुछ नहीं, नौकरी के लिए दर दर भटक रही हूँ और क्या। आज एक ऑफिस में बुलाया था। वहाँ पर काम तो हुआ नहीं उल्टा देर होने की वजह से रास्ते में बारिश में और भीग गई।” तब तक वेदान्तिका चाय का कप खाली कर चुकी थीं।

“कोई बात नहीं दीदी, आपको नौकरी मिल जाएगी। आपके लिए खाना लेकर आऊं, भूख लगी होगी आपको।?” दीपाली ने सावधान की मुद्रा में खड़े होते हुए पूछा।

“नहीं बेटा मुझे बस नींद आ रही हैं। एक चादर चाहिए ओढ़ने के लिए।” कहते हुए वेदान्तिका पलंग पर लेट जाती हैं। 

“जी दीदी मैं अभी निकाल कर देती हूँ।” कहकर दीपाली अलमारी में से एक चादर निकाल कर वेदान्तिका को ओढ़ा देती हैं और “गुड नाईट दीदी” कहते हुए बिजली और दरवाजा बंद कर वहाँ से चली जाती हैं।

अगली सुबह जब वेदान्तिका की नींद खुलती है तो उसे अपने अंदर एक आत्मविश्वास का अनुभव होता हैं। वह खुश मन से उठती है और हाथ मुंह धोकर कमरे से बाहर निकलती हैं। बाहर का मौसम साफ हो चुका था। अब वेदान्तिका अपने सफर पर निकल सकती थी।

वह रिशेप्शन पर गई तो वहाँ पर वह बुजुर्ग पहले से ही मुस्कुराते हुए खड़े थे। उन्होंने वेदान्तिका को देखते ही पूछा- “और बेटा, रात अच्छे से कट गई ना, कोई परेशानी तो नहीं हुई?”

“अरे नहीं अंकल जी, बहुत अच्छी नींद आई बेफिक्री से। वैसे दीपाली ने बहुत अच्छे से ध्यान रखा मेरा। वाकई बहुत अच्छी लड़की है। अच्छा अंकल जी किराया कितना हुआ एक रात का?” वेदान्तिका ने पर्स टटोलते हुए पूछा।

“अरे नहीं बेटा, हम सेवा का मोल नहीं लेते। आपकी मदद करना तो हमारी खुशी है बेटा। आप जाइये और जिंदगी में सफलता पाइये बस हमें कुछ नहीं चाहिए।” उस बुजुर्ग ने कहा।

“लेकिन ऐसे कैसे........” वेदान्तिका के मन में संकोच था जिसे बुजुर्ग समझ गये। उन्होंने कहा- “बेटा हम मेहनत से अपना पेट भरते हैं और सेवा करके खुशी पाते हैं बस आप चिंता मत करो। जाओ आपको देर हो रही हैं।”



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