भय से बनी निर्भय
भय से बनी निर्भय
आज मैं एक ऐसी कहानी सुनाने जा रही हूं जो मेरी ही जीवन से जुड़ी है। यह कहानी उस समय की है जब मेरी उम्र 8 वर्ष थी। मैं कक्षा चार में पढ़ती थी और एक दिन हिंदी की कक्षा में, मैं अपने कॉपी में कक्षा कार्य को लिख रही थी, तभी मेरी नजर मेरी फ्रेंड की कॉपी पर पड़ी। उसके पास बहुत सारी नई- नई कॉपियां थी, और मेरे पास सारी की सारी पुरानी कॉपियां थी जिनमें कुछ पन्ने बचे होते थे तो मैं उन पन्नों पर लिखा कर दी थी। उसी दिन टिफिन के समय मेरा ध्यान मेरी दोस्त की कॉपियों पर पड़ा। कॉपियों को रखते समय उसका एक कॉपी टेबल के नीचे गिर गया और जल्दबाजी में उसने अपने बैग को पूरा बंद भी नहीं किया और वह निकल गई। कक्षा समाप्त हो गई थी। उसकी वह कॉपी गिरी हुई थी मैंने वह कॉपी उठा ली और मेरे मन में ऐसा ख्याल आया कि “क्यों नहीं यह कॉपी में रख लूं कॉपी, उसके पास तो बहुत सारी कापियां है। उसे इस बात का कोई भी असर नहीं पड़ेगा।" उसकी कॉपी के पहले पेज पर उसका नाम लिखा था, मैंने एक और दुस्साहस किया। उसके कॉपी के पहले पन्ने को फाड़ कर फेंक दिया। मैं नादान थी मैंने यह भी नहीं सोचा कि पन्ने को कहां फेंकना चाहिए था। मैंने ठीक बेंच के नीचे ही उस कागज को फेंक दिया। हालांकि मैंने सारे सबूत यूं बिखेर रखे थे तो मैं अंतिम पीरियड तक जाते-जाते मैं पकड़ी गई। मेरी फ्रेंड ने मुझे देखा, मैं डरी हुई थी उसने मेरा बैग चेक किया, अपनी कॉपी को मेरे बैग में देखा, और फटे हुए पन्नों को भी बेंच के नीचे देखा और वह सब कुछ समझ गई। उसने मेरा मेरी शिकायत मास्टर जी से कर दी। बात आगे बढ़ी, प्रिंसिपल तक गई, मुझे दूसरे दिन अपनी मम्मी को साथ लाने के लिए कहा गया। यह बात सुनकर ही रही थी मैं डर रही थी कि अब क्या होगा! मैं स्कूल समाप्त होने के बाद घर जा रही थी घबराहट में मैं सिर्फ यही सोच रही थी कि “काश स्कूल से घर जाने तक का यह सफर खत्म ही ना हो, घर इतनी दूर हो जाए कि मैं उस घर तक पहुंच ही ना सकूं।" मैं बहुत ज्यादा डरी हुई थी और क्या यही सोच रही थी कि क्यों मैंने ऐसा क्यों किया? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मुझे पछतावा तो हो रहा था लेकिन आने वाली संभावनाओं से मैं बहुत ही ज्यादा डरी हुई थी कि “मैं मम्मी को क्या बताऊंगी।" तभी मुझे सा ध्यान आया कि “कक्षा में मेरी एक मित्र थी जिसका नाम ममता था, वह मेरे घर के एकदम पास रहती थी और मेरी मम्मी शाम को अक्सर उसकी मम्मी से मिलने जाया करती थी, तो हो ना कहीं ममता ने मुझसे पहले ही मेरी मम्मी को सब कुछ बता दिया तब तो बहुत ही बुरा हो जाएगा। मम्मी मेरी बात को बिना सुने ही मुझ पर हाथ उठाएगी, मुझे बहुत कुछ सुनाएगी।" मैं अंदर से यह सोच कर और ज्यादा डर रही थी। मैं अपने घर के अगल-बगल ही गोल गोल चक्कर काट रही थी लेकिन घर नहीं जा रही थी। उस समय मेरे मन मस्तिष्क में एक ही बात घूम रही थी कि “काश मैंने ऐसा काम नहीं किया होता तो आज मैं इस तरह ना डरी हुई होती।” इस भावना के कारण कहीं ना कहीं मैं बार-बार मर कर जी रही थी। तभी मुझे जोरों की भूख भी लगी, “मैंने सोचा जो होगा देखा जाएगा मुझे घर जाना चाहिए”, फिर मैंने घर जाने का फैसला लिया और मैं घर चली गई। घर में मम्मी नहीं थी। मैंने चुपचाप खाना खाया और अच्छे बच्चों की तरह होमवर्क करने लगी, कुछ समय बाद मम्मी घर आई और जैसा कि मैंने सोचा था कि ममता ने सब कुछ बता दिया होगा वैसा ही मेरी मम्मी को सारी बातों का पता चल मेरी दोस्त से चल चुका था। मम्मी आते ही मुझे पीटना शुरू किया, मुझे बहुत सी बातें सुनाई मम्मी ने कहा “हमने क्या कमी रखी है, क्या हमने तुम्हें चोर बनने की शिक्षा दी? तुमने ऐसा काम क्यों किया ? ” उस समय मुझे एहसास हुआ कि “मेरी नई कॉपी की कामना ने ऐसा बवंडर खड़ा करके रख दिया”; काश मैंने यह कामना नहीं की होती तो आज मैं इस कदर अभी बुरी अवस्था में ना फंसी होती।
फिर दूसरे दिन मम्मी को मेरे साथ स्कूल जाना पड़ा और वहां भी प्रिंसिपल ने मुझे उस बुरी तरह डांटा, मम्मी को भी बहुत सुनाया गया। मैं सिर झुकाए सिर्फ यही सोचती रही कि अगर मैंने यह कार्य न किया होता तो आज इस तरह से मैं जलील नहीं होती। उसके बाद भी आगे के दिनों में मैं कक्षा में अनमनी सी ही रहने लगी, क्योंकि मेरे बाकी मित्रों को भी इस बात का पता चल चुका था वे सभी मेरा मजाक उड़ाया करते थे। मैं इस परिस्थिति से उबर नहीं पा रही थी। मैंने सब से बोलना बंद कर दिया था। मैंने सब का सामना करना बंद कर दिया था, मैं सब से नजरे चुराया करती थी। ऐसी अवस्था में मैंने अपने आप से एक कसम खाई कि “चाहे जीवन में कुछ भी हो जाए, कितनी भी बुरी परिस्थिति क्यों ना जाए मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी जिससे कोई भी मुझे यह कह दे कि .रुक जा मैं अभी तेरी मम्मी को बताती हूं और तुझे सबक सिखाती हूं। ”
दोस्तों आज भी जब मैं उस घटना को याद करती हूं तो मैं डर जाती हूं और उस उम्र में खाई उस कसम को मैंने हमेशा निभाया। आज भी मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहती जिसका डर मुझे निडर बनने से रोके। मैं अपने मन में कोई भी बात नहीं रखती, सब अपने मित्रों से साझा कर देती हूं चाहे वो मेरी कोई बहुत बड़ी गलती ही क्यों ना हो राई का पहाड़ बनने नहीं देती। मेरी भूल ही क्यों ना हो स्वीकार करके जो पर्याप्त सजा मिलनी है मिल जाए और वह बात वहीं खत्म हो जाए। आज भी मैं अपने उसी सिद्धांत पर चलती हूं। 8 साल की उम्र में मैंने जिस डर का सामना किया था उस डर ने मुझे इस उम्र तक निडर बनाकर रखा और आगे भी मैं निडर ही रहूंगी।
(निज अनुभूतियों पर आधारित स्वरचित रचना)
