बहरा है क्या

बहरा है क्या

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रेलगाड़ी बस प्लेटफार्म पर लगने ही वाली थी, इसकी उद्घोषणा तो २ मिनट पहले ही हो चुकी थी। अब कुली और खोमचे वाले प्लेटफॉर्म की तरफ जमावड़ा करने लगे जो इस बात का निश्चित संकेत हैं कि गाड़ी सचमुच ही आने वाली थी। (उद्घोषणा तो कई बार गलत भी साबित हो जाया करती है)


जयंत भी तैयार हो गया जनरल डिब्बे में सवार होने के लिए। उसे किसी भी हालत में आज इस डिब्बे में जगह पानी ही थी, क्योंकि बड़ी मुश्किल से तीन दिन कि छुट्टी मिली थी और उसे अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए घर पहुंचना ही था नहीं तो अनर्थ हो सकता था। रेंगती हुई गाड़ी का जनरल डिब्बा जहाँ जयंत खड़ा था वहां से ३ फुट की दूरी पर आकर रुक गया।


कहने को तो पिछले एक घंटे से डिब्बे में जाने के लिए एक लाइन लगी थी पर डिब्बा आते ही लोग अपना धैर्य खो बैठे और लाइन तोड़ डाली। हर कोई सबसे पहले अंदर जाना चाहता था। पर ये क्या, डिब्बा तो अंदर से बंद था। किसी को शायद इस स्टेशन पर उतरना ही नहीं था।


खिड़की के पास बैठे लोगों से बाहर वाले लोगों ने बड़ी अनुनय विनय की कि वो उठ कर दरवाजा खोल दें ताकि बाहर से लोग अंदर आ सकें। पर उन्होंने लगता था जैसे कान में रुई ठूंस रखी थी। शायद हर स्टेशन पर आनेवाली भीड़ के वे अभ्यस्त हो गए थे। वे लोग नहीं चाहते थे कि पहले से ही ठुसे हुए डिब्बे में और लोग आए।


ट्रेन सिर्फ वहां दो ही मिनट के लिए रुकने वाली थी। जयंत भी खिड़की के पास बैठे एक बुजुर्ग से बार बार दरवाजा खोलने का अनुरोध कर रहा था, पर उसके कान पर जून तक नहीं रेंग रही थी। 'बहरा है क्या?', हताशा में उसके मुंह से निकला, जिसे उसने अनसुना कर दिया जैसे वो सचमुच बहरा ही हो।


तभी हड़बड़ी में किसी ने दरवाजा खोल दिया था, शायद कोई अभी नींद से जगा था और उसे इसी स्टेशन पर उतरना था। दरवाजे में जगह होते ही जयंत ने अपनी कोहनियों से आजू-बाजू वाले लोगों को पीछे धकेल दिया और अपने बलिष्ठ शरीर को जैसे तैसे अंदर पहुंचाने में कामयाबी पा ही ली।


जयंत के साथ बस एक और व्यक्ति ही अंदर जा सका था कि किसी ने फिर से दरवाजा बंद कर दिया। अंदर पहुंचकर जयंत खिड़की के ही पास किसी तरह बैठने में भी कामयाब हो गया। अब बाहर के लोग दरवाजा खोलने के लिए गुहार लगा रहे थे। एक मूंछों वाले देहाती ने जोर से चीख कर जयंत से कहा, 'बहरा है क्या?'

जयंत को लगा कि वो सचमुच बहरा हो गया है, और तभी गाड़ी रेंगने लगी।


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