"बेटा जाग जाओ..."
"बेटा जाग जाओ..."
यह तो एक सामान्य सा प्रतिदिन का तरीका है मेरी माँ का मुझे उस राक्षसी व डायन 'नींद' के कब्जे से साहसता पूर्वक, परन्तु बड़ी सहजता से निकाल लाने का। अब आपके मन में दो प्रश्न उठे ही होंगे, और अगर प्रश्न नहीं उठे तो इतना समझ लीजिये की आपने भी मेरी ही तरह हिन्दी और अंग्रेज़ी का काम, उस 'नन्दलाल दयाराम' की गाइड की पुस्तक से ही किया है।
प्रथम प्रश्न तो यह कि मैंने नींद के लिए इतने कटु शब्दों का प्रयोग क्यों किया और द्वितीय यह की मैंने नींद को महिला ही क्यों कहा। हां तो, मैं इन प्रश्नों का उत्तर ठीक पूछे गए प्रश्न के विपरीत क्रम में देना चाहूंगा, पहली बात तो यह चूंकि हर एक पुरूष को नींद सबसे ज्यादा प्यारी होती है विशेषत: मुझे, इसलिए मैंने नींद को महीला माना है। मैं ही नहीं, हमारे हिन्दू समाज में वेदों ने भी निद्रा को देवी का ही पद दिया है। इसीलिए शायद कहा भी जाता है कि अधिक सोने वाले पुरूष जीवन में कभी सफल नहीं होते और क्यों स्त्रियां हमेशा किसी कार्य को करने के प्रति इतनी तत्पर होती हैं।
दूसरे प्रश्न की बात करें तो वो कटु शब्द मेरे नहीं मेरी माँ के हैं, आखिर मेरी माँ भी एक महिला है, और दो महिलाओं में विरोध रहना तो जगत विख्यात है।
माँ का यह प्रथम प्रयास मेरे प्रेम को कम करने में नाकाम रहा, परन्तु तत्क्षण ही उन मंझी हुई धनुर्धर ने अपने तरकश से एक नया तीर निकालते हुए मेरी तरफ छोड़ा, "बेटा उठ भी जाओ आज छब्बीस जनवरी है"। थोड़ी देर लगा कि यह काम कर जाएगा पर फिर सोचा कि मुझे इससे क्या, हर साल तो आता है यह। अंततः माँ का आज का अंतिम प्रयास ब्रह्मास्त्र के रूप में उभर कर सामने आया, " बेटा बारिश भी शुरू हो गयी।" इस ब्रह्मास्त्र ने मेरे मोह को भंग कर दिया।
बिस्तर पर दो मिनट शान्त मन से बैठा ही था कि तभी मेरे अन्तर्मन में प्रश्न रूपी विशालकाय आंधी ने मुझे अन्दर से झकझोर दिया कि , देश प्रेम व निद्रा प्रेम दोनों में से आखिर मैंने किसे प्राथमिकता प्रदान की है ? , क्या मैं स्वयं को देशभक्त व एक जागरूक नागरिक कह सकता हूं? हां ये मानता हूँ कि जब भी अपने देश की बात आती है हमारे भीतर की देशभक्ति अपने चरम सीमा तक जाग जाती है, परन्तु आवश्यकताओं व अपने शारीरिक सुख के सामने क्यों उसका कोई महत्त्व नहीं रह जाता।
खैर, इतने जटिल सवाल को अपने अन्दर समाये हुए वह क्षणिक आंधी अन्तर्ध्यान हो गयी। चूंकि हर बार की तरह यह आंधी भी इतनी क्षणिक थी कि उसका प्रभाव मुझ पर भी क्षणिक मात्र ही था।
मां के हाथों की बनी चाय के प्याले को दोनों हाथों से कुछ इस क़दर पकड़कर , कि मानों मेरे जीवन की कमाई हुई सारी सम्पत्ति उस प्याले में समाहित हो, कांपते हुए मैं छत की तरफ भागा। बारिश की छोटी छोटी बूंदे उस प्याले में पड़कर चाय की मात्रा व उसके मिठास दोनों को बढ़ा रहे थे। छत पर पहुँच कर कमरे की खिड़की के पास एक कुर्सी लगाकर मैं भी उस घनघोर बरसात का आनन्द ले ही रहा था कि तभी फिर अचानक एक और विशालकाय तूफान ने मेरे आन्तरिक मन पर चोट करने की कोशिश की और अबकी बार वह सफल भी हुआ क्यूंकि शायद वह मेरे बुद्धि का पैदा किया हुआ ही एक मानसिक षड्यंत्र था।
तूफान यह कि कल उसका जन्मदिन था, जिसने शायद आज से दो हफ्ते पहले मुझे आईना दिखा दिया था। तब तक सामने घर में चल रहे रेडियो भी यह चीख कर मुझे याद दिलाने लगा कि "आईना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं।" एक तो बरसात की वो बूंदें, माँ के हाथ की बनी चाय, सामने बजता हुआ लता जी का वह गाना और उसपर मन में उठा यह तूफान। फिर शुरू हुआ एक बार और अपने आप से ही प्रश्नों का वो सिलसिला आखिर हो भी क्यों ना, जा जो चुकी थी वो।
क्या उसे एक बार भी मेरी याद नहीं आई होगी? कोई ऐसा रास्ता है क्या कि उसे एक बार बस एक बार उससे यह कह सकूं की हां हूं मैं तुम्हारे साथ अभी भी खड़ा? कभी तो नहीं की थी मिलने कि कोशिश एक बार भी, जब तुमने ये कहा था कि मुझे समाज का डर रहता है। कभी भी गलत तरीके से बात नहीं की जब तुमने कहा कि मुझे ये सब पसन्द नहीं।
हां मुझे पता कि बारिश की ये मामूली सी बूंदें तुम्हारी जगह नहीं ले सकतीं, पर मुझे यह भी यकीन है कि बारिश की बूंदें क्या तुम्हारी जगह कोई और नहीं ले सकती।, हां मान लिया मैंने, कि मैं पूरा बदल चुका हूँ पर ये बताओ , अगर तुम नहीं बदली तो फिर क्यूँ मुझसे जुदा हो।
खैर, माँ की आवाज ही किसी और के प्रेम को ध्वस्त करने के लिए काफी थी। " बेटा बहन को स्कूल से लेने जाना है। " चाय ठंडी हो चुकी है, बारिश भी थम चुकी है और सामने लता जी भी गाना गा कर जा चुकी है, वो तूफान भी विलुप्त हो चुका है जिसने मेरे मन के घाव को एक बार फिर कुरेदा था।
शायद माँ ने सही बोला था,
"बेटा जाग जाओ देखो सुबह हो गई है! "