Brajesh Raja

Inspirational Others

4.9  

Brajesh Raja

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बदलाव

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सुनन्दा और सुगन्धा बचपन की सहेलियाँ है। दोनों साथ साथ खेलती और साथ साथ खाती थी। पढ़ने भी साथ में जाती थी। पर सुनन्दा के घरवालों को बिलकुल पसंद नही की उनकी बेटी और पोती उसके साथ खेले कूदे, खाये पिये और पढ़े लिखे। सुनन्दा के दादा गाँव के सरपंच है। और सुनन्दा ऊँची जाति की है। जबकि सुगन्धा हरिजन जात की है और उसके माँ पिता मजदूरी करते थे। इसलिए सुनन्दा के पाँव में भेद भाव की जंजीरें बन्धी थी। फिर भी सुनन्दा सुगन्धा से मिलने के लिए दादा दादी, माँ पिता से नज़रे चुरा कर भाग जाती थी। दोनों का घर आमने सामने था। उसके यहाँ जाकर दोनों सहेलियां गुड्डे गुड्डी का खेल खेलती ब्याह रचाती और हाथ में हाथ डालकर गांव की गलियों, खेतों खलिहानों की सैर कर आती। किसी को कानों कान खबर भी नहीं होती की सुनन्दा और सुगन्धा साथ में थे। लेकिन सच्चाई छुपती कहाँ है। कहीं न कहीं से खबर मिल ही जाती। फिर दोनों को दोनों के घर में डॉट भी पड़ती। गर्मियों में आम के बगीचे में तो कभी शहतूत तोड़ने के लिए दोपहर में ही भाग जाते। इधर घरवाले परेशान रहते।

सुनन्दा के घर में शुद्ध शाकाहारी खाना पकता जबकि सुगन्धा के यहाँ मांसाहारी। सुनन्दा सुगन्धा को खाते देख बोलती कैसे चूहे और कबूतर को मारकर खा जाती हो। बेचारा मर जाता है न। उसी को पकाकर खा भी जाती हो। तो सुगन्धा इठला इठलाकर सुनन्दा को खाने के लिए लालायित करती। बाल मन कभी कभी भटक ही जाता है। कातर निगाहों से उसके खाने को देखती और मन को मारकर घर भाग आती। लेकिन कभी खाने की इच्छा जाहिर नहीं की।

एकबार दोनों सहेलियाँ आम के बगीचे से आम लाने गयी। बरसात का महीना था। पेड़ एक तालाब के किनारे में था। ढेले से आम तोड़ के बटोरने में लगी थी। तभी एक आम छपाक से तालाब में गिरा। साथ ही आम पकड़ने के चक्कर में दोनों सहेलियाँ भी पानी में छपाक हो गयी।

पानी की धारा तेज़ थी। पानी के साथ साथ दोनों सहेलियाँ भी बहने लगी। पर दोनों में से किसी को तैरना नहीं आता। दोनों डर के मारे रोने चिल्लाने लगी। पास से गुजरते एक व्यक्ति ने देखा और पानी में कूदकर दोनों को बचा लिया। उस वक्त सुगन्धा की माँ पास के खेत में काम कर रही थी। जैसे ही उसने सुना दौड़कर हमारे पास आ गयी। दोनों को गले लगा लिया। और आँखों में आँसू लिए हुए हमे डॉट भी दिया। सबलोग कहने लगे तुम्हारी दोनों बेटी बच गयी। फिर सुगन्धा की माँ सुनन्दा को लेकर उसके घर पहुंचा दी। सुनन्दा के दादा दादी ने देखा की वो पूरी की पूरी भीगी हुई है तो पूछा क्या हुआ मेरी पोती को।

सुगन्धा की माँ ने पूरी घटना बता दिया। तब से सुनन्दा का घर से बाहर जाना बन्द। अब सुगन्धा उसके घर आकर उसके साथ खेलने लगी। लेकिन दोस्ती नहीं टूटी।

समय बीतता गया। ग़रीब होने के कारण सुगन्धा आगे की पढ़ाई नहीं कर पाई,जबकि सुनन्दा पढ़ाई करने के लिए बाहर चली गयी। उसके पापा सरकारी नौकरी करते थे। इसलिए वो पाप के साथ ही रहने लगी।

अब सुनन्दा कभी कभी गांव आती तो सुगन्धा ज़रूर मिलने आती। सुनन्दा भी छिपकर उससे मिलने उसके घर चली जाती। दोनों घण्टों बैठकर इधर उधर की बातें करते और ठहाके लगाते। अगली बार मिलने का वादा करके सुनन्दा सुगन्धा से विदा लेती। विदा होते वक्त दोनों के आँखों में आँसू होते।

कई वर्ष बीत गए,सुनन्दा शहर से घर नहीं गयी। क्योंकि सुनन्दा इण्टर में पढ़ रही थी और एग्जाम पास था।

जैसे ही परीक्षा खत्म हुई ,गांव से फ़ोन आया की दादी का इंतकाल हो गया। सुनन्दा तो बस रोये जा रही थी।दादी से बहुत प्यार करती थी। अगले दिन गांव पहुँच गयी। पूरा घर भरा हुआ था रिश्तेदारों का आना जाना हो रहा था। गमगीन माहौल था। फिर भी उसकी दोस्त सुगन्धा उससे मिलने आ पहुँची। सुनन्दा उसे देखती रह गयी ,ये क्या तुम्हारी शादी कब हुई। बताई क्यों नहीं। सुगन्धा बोली मुझे चिठ्ठी लिखना भी तो नहीं आता न। कैसे खबर करती तुझे। फिर दोनों जी भर के रोई। सुनन्दा बोली अब तो तू मुझसे मिलने कैसे आएगी जब मैं गांव आउंगी। फिर मेरा मन भी तो नहीं लगेगा। सुगन्धा बोली अगर मैं यहाँ रहूँगी तो जरूर मिलूंगी तुमसे।

सुनन्दा शहर जरूर चली गयी थी ,लेकिन उसके अंतर्मन से सुगन्धा कभी बाहर नहीं हुई। हमेशा उसके दिल में बसी रह गयी। यूँ तो शहर में भी कई सहेलियाँ बनी,लेकिन सुगन्धा की जगह कोई न ले पायी। सुगन्धा बोलती चलो तुम भी मेरे ससुराल में ही शादी कर लो। अपनी सखी के लिए लड़का भी ढूंढ ली। पर सुनन्दा के पापा को लड़का पसन्द नहीं आया। रिश्ता नहीं हुआ वहां। सुगन्धा मुरझा सी गयी।

खैर सुनन्दा की भी शादी तय हो गयी। इत्तेफ़ाक से सुगन्धा भी वही थी। दो बच्चों की माँ बन चुकी थी। इसबार सुगन्धा नज़रे चुराकर बात कर रही थी ।सुनन्दा ने टोका, अरे मुझ से कैसी शर्म ,चल आ जल्दी ।अपनी सखी के शादी का इन्तेजार कब से कर रही थी। सुनन्दा ने उसे स्पेशल्ली न्योता भिजवाया था। बहुत ख़ुशी हुई सखी की शादी में शरीक होकर। विदाई के समय भी दोनों खूब रोई।

समय पर लगाकर फुर्र फुर्र उड़ता रहा। दोनों सहेलियों का अब मिलना नामुमकिन हो गया। क्योंकि दोनों अब ससुराल में रहने लगे। सुनन्दा अपने मायके जाती तो सुगन्धा की खोज खबर लेती और सुगन्धा सुनन्दा की।

सुनन्दा के पति मांसाहारी खाना पसन्द करते थे। लेकिन ने सुनन्दा तो कभी भी छुआ तक न था। इसलिए साफ मना कर दी,मैं नहीं खाती हूँ, मुझे बनानी भी नहीं आती। इसलिए कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं कीजिएगा। उसका पति खुद से ही बनाता और खाता। उसके पति ने एक दो बार प्यार से समझाया बुझाया इसके बावजूद कोई असर न हुआ तो सोचा ज़बरदस्ती अच्छी नहीं। सुनन्दा अपने पति को समझ चुकी थी। मन ही मन सोचती कितना अच्छा पति है मेरा कम से कम मुझे समझता तो है। कभी कभी अपनी सखी सुगन्धा की भी याद आ जाती। बचपन की यादें ताजा हो जाती।

सुनन्दा और सुगन्धा ख़ुशी ख़ुशी अपने ससुराल में रहने लगी। सुनन्दा के आँचल में भी एक परी आ गयी थी।अब तो अपने परिवार और परी के साथ खुशहाल जिंदगी बिताने लगी। लेकिन कहा जाता है न,ख़ुशियाँ ज्यादा देर नहीं टिकती। सुनन्दा के पति बीमार रहने लगे। डॉ ने रोज़ मछली और माँस खाने को बोला।

सुनन्दा ने डॉ से पूछा,क्या इसकी जगह कुछ और नही ले सकते। डॉ ने बोला जिस तरह मेडिसिन ज़रुरी है ,उसी तरह इनकी सेहत के लिए ये भी ज़रुरी है।और आप ही इनका अच्छे से केअर कर सकते है।सुनन्दा सोच में पड़ गयी। मुझे तो कुछ करना भी नहीं आता। माँस मछली बनाना भी नहीं आता। अंडे को सिझाना भी नहीं आता। कैसे करुँगी मैं ये सब। सबसे बड़ी बात उसको अच्छे से पानी से धोना। सुनन्दा छूना क्या देखना तक पसन्द नहीं करती।

शुरू शुरू में तो उसके पति ही मार्केट से सारा सामान ख़रीद लाते और खुद बनाते। लेकिन सुनन्दा को बिलकुल अच्छा नहीं लगता की उसका पति बीमार है और खुद खाने के लिए खुद ही बनाये। उसने सोचा लोग प्यार में क्या कुछ नहीं करते। जान तक दे देते है। तो फिर मैं उनके लिए ये त्याग क्यों नहीं कर सकती। धीरे धीरे अपने पति के साथ अंडा मछली बनाने में मदद करने लगी। उसका पति भी उसे मना नहीं कर पाता। बस कहता तुझे तो अच्छा नहीं लगता न ये सब तो फिर। सुनन्दा बोलती क्या करूँ,आप खुद बनाते वो भी तो अच्छा नहीं लगता न। आप मुझे बनाना सिखा दीजिए। फिर आपको नहीं बनाना पड़ेगा। सुनन्दा का पति अचंभित होकर उसकी तरफ देखता ही रह गया।

अब तो सुनन्दा की दिनचर्या बन गयी ये सब करने की। जब भी मार्किट मछली अंडा और माँस लाने जाती। खुद को बहुत कोसती। मेरी वजह से ये मुर्गे और मछली अपनी जान गवांते है। भगवान मुझे कभी माफ़ नहीं करेगा। बेचारे की क्या जिंदगी है।

उसकी सास भी कभी कभी कह देती तू तो अब निर्दयी हो गयी है।ममता नहीं लगता है।सुनन्दा बस चुप हो जाती, कुछ भी नहीं कहती ।

इधर सुनन्दा को रोज़ रोज़ अपनी सहेली दादा दादी, मम्मी पापा सबकी याद आती। खुद ही सोचती कितना बदल गयी मैं।जितना दूर थी मैं इन चीज़ो से उतना ही करीब हो गयी मैं। दूर दूर तक इन सबसे मेरा कोई वास्ता न था। वक्त क्या कुछ नहीं करवाता। चाहे आप मन से करो या बेमन से। सुनन्दा काफी बदल गयी थी।उसमे एक बड़ा "बदलाव" आ गया था। जो की अब उसकी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था।


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