Deepa Sharma

Inspirational

4.5  

Deepa Sharma

Inspirational

बात सिर्फ इतनी सी है कि बात कि जाए

बात सिर्फ इतनी सी है कि बात कि जाए

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बात जरा सी थी... बात करके बात को भी सुलझाया जा सकता था... अगर वो भी बात करना चाहता तो...!

वो हमारे पड़ोसी थे। दोनों परिवारों में अच्छा मेलजोल था। उनकी बेटी मेरी सहेली थी। हम दोनों अक्सर साथ खेलते थे। कभी-कभी दोनों एक-दूसरे के घर खाना भी खाते थे। 

एक दिन उसके पापा और मेरे पापा में बहस हो रही थी। हम दोनों सहेलियां भी देख और सुन रहे थे। इतने में मेरी मम्मी आई और पापा का हाथ पकड़ते हुए बोली, "चलो, अंदर चलो तुम..." कुछ समझ आता, इससे पहले तो पापा ने मुझे तुगलकी हुक्म सुना दिया, "आज के बाद उनके घर नहीं जाओगी।"

पापा की आवाज इतनी तेज और गुस्से वाली थी कि बिना कुछ बोले मैं कमरे में चली गई और सो गई। 

हर दिन की तरह सुबह उठी। स्कूल के लिए तैयार हुई और अकेले ही स्कूल की तरफ चल दी। अन्य दिनों की तरह ना सहेली को आवाज दी, ना ही उसका इंतजार किया। कारण, रात में ही पापा ने मना किया था कि अब उनसे ना बात करनी है, ना उनके घर जाना है। 

यूं तो स्कूल में हम दोनों साथ ही बैठते थे, पर आज अलग-अलग सीट पर बैठे एक-दूसरे की शक्ल देख रहे थे। दोनों कशमकश में थे। बोलने के लिए शब्द तो बहुत थे, पर जुबान तक का सफर तय नहीं कर पा रहे थे। जरूर मेरी तरह उसके घरवालों ने भी उसे मुझसे दूर रहने की हिदायत दी होगी।

खैर, स्कूल की छुट्टी हुई। मैं अकेले ही घर वापस आई। ये सिलसिला 3 तीनों तक यूं ही चला।

फिर एक दिन हमारे घर डाकिया आया और बोला कि कोर्ट का फरमान है। मम्मी कागज को देखते ही सकपका गई और पापा को फोन लगाया। पापा तुरंत घर आए और कागज देख उनके माथे पर हैरानी की सलवटें उभर आईं।

उसमें लिखा था कि हमारे पड़ोसी ने हम पर केस किया है। मामला बस इतना सा था कि उनका और हमारा दरवाजे का रास्ता एक था और कभी-कभी इस रास्ते से निकलने में दिक्कत हो जाती थी। पर कभी ये झगड़े का मसला नहीं बना था। अब उनका कहना था कि इनका रास्ता यहां से बंद किया जाए। 

बात उस दिन की कहा-सुनी के बाद ही बिगड़ी थी। उस दिन भी लड़ाई बस इतनी सी बात पर हुई थी कि हमारी बाइक दरवाजे के आगे खड़ी थी... और अंकल को निकलने में थोड़ी दिक्कत हो गई थी।

अगले दिन पापा एक वकील के पास गए और सलाह ली। टेंशन इतनी ज्यादा थी कि घर आकर कुछ खाया भी नहीं। मम्मी पूछ रही थी कि अब क्या होगा! लेकिन पापा के पास जवाब नहीं था।

हमारे पड़ोसी के घर का हाल भी हमसे जुदा न था। तनाव दोनों ओर था। इसमें हम दो सहेलियां बेवजह पीस रहे थे।

मैं और मेरी सहेली अगले दिन स्कूल में टकटकाती नजरों से एक-दूसरे को देख रहे थे। दोनों की आंखें बरसने की बेताब थीं, दिल की धड़कने तेज थीं। दोनों एक-दूसरे को निहार रहे थे। हाल-ए-दिल बयान करने को होंठ थरथरा रहे थे। पर कब तक जुबान यूं घुटती रहती! आखिर उसने बंधन तोड़ दिए, तो दोनों ने अपने दिल का बोझ हल्का किया।

इधर, हम दोनों सहेलियां छुप-छुपकर मिल लेती थीं, तो उधर, महीने की महीने कोर्ट में तारीख लग रही थी... वकील की फीस जा रही थी... केस कब खत्म होगा, किसी को नहीं पता था! 

एक पेज के वकालतनामे से शुरु हुए केस की फाइल अब 400 पन्नों की बन गई थी। उसमें क्या लिखा था, ये कोई नहीं पढ़ता था। वकील जो कहता था, उसे मान लिया जाता था।

ये दोनों पक्षों को पता था कि केस की तारीख से पहले और बाद में दोनों के वकील दोस्त की तरह मिलते हैं और हजारों बातें करते हैं। फिर, जाने क्यूं पापा और अंकल दुश्मन बने हुए थे?

कोर्ट में तारीख पर तारीख लग रही थी। बेवजह पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा था। सिर्फ रुपयों का ही नुकसान नहीं हो रहा था, मानसिक और शारीरिक कष्ट भी झेल रहे थे। समाज में मान-सम्मान भी खो रहे थे।

केस के तनाव को झेलते-झेलते सालों गुजर चुके थे। अब मैं भी सयानी हो चुकी थी। 25 सालों से दोनों परिवारों को तनाव और मतभेद के दौर गुजरते और वकीलों को मौज करते देखती थी। दुख होता था ये देख। मैं समझने लगी थी कि इस केस में ज्यादा कुछ था नहीं। लड़ाई सिर्फ अहम की थी और इस अहम के कारण दोनों परिवार क्या कुछ खो रहे थे, इसकी किसी को परवाह नहीं थी। 

मुझे याद है, कई बार घर में खाने के लिए खाना तक नहीं था, लेकिन वकील को पैसे देने ही होते थे। मां के शादी के जेवर तक इस अहम की लड़ाई की भेंट चढ़ चुके थे।

कहने को कोर्ट-कचहरी न्याय और आपसी सुलह करवाने के लिए बनी है... लेकिन उस अभागी चौखट पर सिर्फ नफरत बस्ती है। वहां आमना-सामना दोस्तों का नहीं, दुश्मनों का होता। मेरे पापा और अंकल इसका जीवंत उदाहण थे। हम नफरत को पनाह देकर वहां दिखावे की जीत के सुकून की तलाश करने की कोशिश करते हैं। लेकिन भूल जाते हैं कि समस्या सिर्फ इतनी सी है कि बात की जाए...

खैर, एक दिन कोर्ट में जज साहब ने कहां कि इस मैटर को मध्यस्थता के लिए भेज रहे हैं। मुझे तो इसका मतलब भी नहीं पता था। फिर पापा ने बताया कि अगली तारीख मध्यस्थता के लिए लगाई है। यानि पापा और अंकल को आमने-सामने बिठाया जाएगा और इस केस को खत्म करने के लिए बीच का रास्ता निकाला जाएगा। मैं हैरान थी कि ये पहले क्यों नहीं समझे कि बात करने से बात बन जाएगी, पर इन्होंने अहम में बात बिगाड़ कर कचहरी तक पहुंचा दी। अब भी तो दोनों को बात ही करनी थी।

अगले दिन कचहरी की दीवारों के अंदर बात हुई, तो दोनों को अपनी गलती का ही नहीं, कितना कुछ खो दिया, बात को संभालने की जगह बिगड़कर, इसका भी अहसास हो गया। मगर गुजरा कल तो लौटने वाला था नहीं, मगर कल को बिगड़ने से बचाकर अच्छा किया।

उस दिन समझ आया कि कोर्ट जाने की जरुरत क्या थी। सिर्फ बात ही तो करनी थी, अहम की आहुति ही तो देनी थी। 

अहम की लड़ाई को कभी स्वाभिमान से मत टकराने दीजिए। क्योंकि इस लड़ाई का फायदा किसी और को होता है। नफरत को खत्म किया जा सकता है, सिर्फ बात करके। और बात तभी होती है, जब अहम को अस्वीकार किया जाता है।

बात सिर्फ इतनी सी है कि बात की जाए... हर समस्या का समाधान है, बस बात कि जाएं। 

बात सिर्फ बात की थी... बात से ही बात उलझ गई थी, बात से ही बात सुलझ गई। 


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