बारिश
बारिश
कई सालों पहले मैंने दो पंक्तियां पढ़ी थी, "इस साल की बारिश कुछ ज्यादा ही रूखी महसूस होती है, या शायद मेरे रवैये में कुछ रूखापन सा घुल गया है। कहीं ये रूखापन किसिके न होने का अहसास तो नहीं?"
रूखापन से मुझे पारुल की याद आती है कभी कभी, हॉस्टल में वो कितनी ज़ोर से हस्ती थी के दूसरे कमरे तक आवाज़ आती थी और हम सब हस पड़ते थे। सिर्फ हसीं ही तो थी जो बारिश की बूंद की तरह सूखे ज़मीन पे पड़ती थी और पूरा बाग़ खिल उठता था। चाहे कोई कितना भी उदास हो, किसी भी वजह से, उसकी हंसी सुनते ही खिलखिला उठता था।
लेकिन धीरे धीरे उसकी ये हसीं फ़िकी पड़ते गई, और किसीने ध्यान ही नहीं दिया।
कैसे कोई अपने से ही दूर होते जाता है और उसके आस पास के लोगों को पता भी नहीं चलता।
हॉस्टल छोड़ते समय कैसे हम सूखे खोखले वायदे करते हैं "एक दूसरे से टच में रहने का", पर कौन रहता है टच में, सब अपनी दुनिया में अपनी अड़चनों में अपने परेशानियों की चादर ओढ़ के चुपचाप चलते हैं, चेहरे पे एक नकली हसीं को असली हसीं की जगह पे चिपकाए हुए। और ए
क दिन असली हसीं नकली हसीं में फर्क करना भूल जाते हैं।
पर पारुल की वो बिंदास हसीं को नकली हसीं के पीछे छुपाना आसान नहीं है।
पिछली बारिश में वो बस स्टॉप पर मिली थी, एक चॉकलेट के रंग वाले छते के नीचे खुदको समेट रही थी। मैं बस स्टॉप तक भाग के अयी खुदको बारिश की बूंदों से बचते बचाके, पर मेरी लाल सुती की शर्ट पर कुछ बूंदों ने धब्बे बना रखे थे मानो अपना दायरा खींच रहे हों।
उसने देखा मुझे और पहचाना, मैं तो शायद पहचान भी नहीं पाती। वो खुद आयी और शुरुआत के कुछ पल पुराने दिनों को आज में जगह देते हुए हमने कुछ यादें ताज़ा करी। फ़िर उसने कहा , "कहीं चाय पीने चलें? अगर तुम्हे परेशानी ना हो तो।"
मैंने कहा, "आज मुझे जल्दी घर पहुंचना है, फिर कभी चलते हैं।" मैंने उसे अपना मोबाइल नम्बर दिया और घर की ओर चल पड़ी।
वो खड़ी रही शायद कुछ देर क्योंकि उसकी नज़रें मैंने अपने पीठ पर महसूस किया था।
उसने कभी कॉल नहीं किया मुझे, हम उस चाय के प्यास को वहीं छोड़ आए, उसी बस स्टॉप पे, वो बारिश की एक शाम के साथ पिघल गई।