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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Comedy Classics Inspirational

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Comedy Classics Inspirational

असत्यमेव जयते

असत्यमेव जयते

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सत्य बहुत उदास था। उदासी का कारण एक ही था कि कोई उसे समझ ही नहीं पाया। बिल्कुल वैसे ही जैसे पति को पत्नियाँ समझ नहीं पाईं और पत्नी को पति। वो कहते रहे कि सत्य प्रकाश की तरह से था मगर वो इसे समझा नहीं पाये। सत्य की समस्या यही है कि ना तो कोई उसे ढंग से समझाना चाहता है और ना ही कोई ढंग से समझना चाहता है। ऐसी स्थिति में सत्य के जीतने की संभावना बन सकती है क्या ? सत्य तो पैदा ही हारने के लिए हुआ है। सत्य उस गरीब की जोरू की तरह है जिसे हर कोई बीच चौराहे पर छेड़ कर चला जाता है और वह बेचारी खीसें निपोरने के अलावा कुछ भी नहीं कर पाती है। 

सत्य कहता है कि उसके साथ रोज रोज "लोकतंत्र के मंदिर" में दुष्कर्म होता है। भरी सभा में उसका चीरहरण होता है। कोई काम हो ना जाये इसलिए लोकतंत्र के मंदिर में हर वक्त शोर शराबा , हो हल्ला , नारेबाजी , शोशेबाजी, मेज पर चढ़कर नाटकबाजी सब कुछ होता है। लोकतंत्र के मंदिर में अलोकतांत्रिक चीजें होती हैं और सत्य टुकुर टुकुर देखता रहता है। रोता रहता है। सिसकता रहता है। शायद उसकी यही परिणति है। घोर हिंसावादी नेता गांधीजी की प्रतिमा के सामने धरना देकर गांधीजी के सत्य, अहिंसा के सिद्धांत का मखौल उड़ाते हैं और फिर भी गांधीवादी कहलाते हैं। सत्य आज तक ऐसे लोगों को बेनकाब नहीं कर पाया है। इससे अधिक और क्या विडंबना हो सकती है इस देश की। सत्य का अस्तित्व घटते घटते गांधीजी की लंगोट की तरह छोटा सा रह गया है। और मजाक यह कि उस लंगोट से भी छोटे छोटे बच्चे खेल रहे हैं। बेचारा सत्य लाज शर्म के मारे मरने के लिए कहीं पर चुल्लू भर पानी तलाशने निकल पड़ता है। 

अब "न्याय के मंदिर" का ही हाल देख लीजिए। यहां तो हर वक्त सत्य का गला घोंटा जाता है। पहली बात तो यह है कि सत्य कभी कुछ कहता ही नहीं है। और अगर कुछ कहता भी है तो उसकी कोई सुनता भी नहीं है। ना तो वकील और ना ही न्याय की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति। सत्य तो उस सरकारी वकील की तरह होता है जो लगभग खामोश रहकर ही पैरवी करता है। उसे खामोश रहने की कीमत भी मिल जाती है। अपराधी का वकील तर्क कुतर्क करके सत्य का चीरहरण करता रहता है और न्याय की कुर्सी धृतराष्ट्र की तरह आंखों पर पट्टी बांधे सब कुछ देखती रहती है। असत्य दलीलें देता रहता है और सत्य खामोशी से सुनता रहता है। जितने भी अपराधी सड़क पर खुलेआम घूम रहे हैं वे चीख चीख कर कह रहे हैं कि देखो , सत्य हार गया है और असत्य जीत गया है। असत्य जीता है तभी तो वे दुर्दांत अपराधी छुट्टे घूम रहे हैं। इस सबको देखकर पहले से भयभीत सत्य और भी अधिक भयभीत होकर अंधेरे में कहीं छुप जाता है। 

जनता के बीचों बीच भी सत्य का वही हाल है जैसा लोकतंत्र और न्याय के मंदिरों में होता है। सब जानते हैं सत्य को मगर मानता कोई नहीं है। सत्य को अपनी पहचान बताने के लिए हर जगह अपनी आई डी देनी पड़ती है मगर असत्य से कोई आई डी मांगता ही नहीं है। उसकी एंट्री तो बैक डोर से हो जाती है। उसे कोई रोक टोक नहीं है। जब चाहे जहाँ चाहे आ जा सकता है। 

एक दिन सत्य बैंक में जन धन खाता खुलवाने चला गया। उससे आई डी मांगी गयी। और दूसरे दस्तावेज भी मांगे गये। सत्य का कोई जमानती भी नहीं था। इसलिए उसका खाता खुल ही नहीं पाया। इतने में असत्य आ गया। उसके साथ उसका पी ए भी आया था हाथ में बड़ा सा सूटकेस लेकर और कुछ बाउंसर भी। सीधा मैनेजर से मिला। सूटकेस पकड़ाया। फोन करवाया और एक झटके में 10000 करोड़ का ऋण ले गया। बेचारा सत्य ? एक जन धन खाता भी नहीं खुलवा पाया और असत्य 10000 करोड़ लेकर लंदन चला गया। वहां पर वह ऐश कर रहा है और यहां पर सत्य सिर धुन रहा है। 

अब बात कर लेते हैं शिक्षा के मंदिर की। आज ही समाचारों में पढ़ा था कि बिहार के किसी मगध विश्वविद्यालय के कुलपति के घर से भ्रष्टाचार निरोधक दल को इतने नोट मिले कि उनको गिनते गिनते थक गये अफसर। ये है नमूना शिक्षा के मंदिरों का। यहां भी सब कुछ बिकाऊ है। शिक्षा, परीक्षा , दीन, ईमान, छात्र, गुरु सब। सत्य को लगा कि शायद इस मंदिर में उसे शरण मिल जायेगी। मगर हाय रे दैव ! यहां पर भी असत्य ने कब्जा कर लिया था। असत्य कहाँ नहीं है ? हर जगह उसी का तो राज है। 

सत्य निराशा के भंवर में गोते लगा रहा था कि अचानक उसे कुछ याद आया। अरे हां , मीडिया में शायद उसे कोई आशियाना मिल जाये। यहां तो सच्चे पत्रकार रहते होंगे ? ऐसा सोचकर वह मीडिया कॉलोनी की ओर चल पड़ा। दीन हीन सत्य को देखकर गेट पर ही दरबान ने रोक लिया। सत्य ने देखा कि किस तरह मीडिया कॉलोनी में कैसी कैसी आलीशान बिल्डिंग बनीं हुई हैं। हजारों करोड़ रुपयों की। जितने भी भवन बने हुए हैं सब एक से बढ़कर एक हैं। कहने को तो वे भवन हैं मगर अब वे दुकान बन चुके हैं। वहां पर समाचार को छोडकर सब कुछ मिलता है। सत्य यह देखकर चकित हुआ कि किस तरह एक निर्भीक पत्रकार एक चापलूस आदमी में बदल चुका है। सत्य से असत्य की ओर जाने वाली इस यात्रा पर वह मौन विलाप करता रहा। 

कहाँ जाये ? सत्य के समझ में नहीं आ रहा था। घरों में भी अब सत्य के लिए कोई जगह नहीं बची थी। चारों तरफ असत्य का ही बोलबाला है। सत्य को अब यह समझ में आ चुका था इसलिए उसने इस दुनिया से चले जाना ही श्रेयस्कर समझा। 


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