Rahul Mohne

Drama

4.6  

Rahul Mohne

Drama

अस्तित्व

अस्तित्व

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जुलाई आधा खत्म हुआ जाता था। एक और किसान आसमान का मुँह तकते नहीं थकता और यहाँ मुंबई में मानो प्रलय आने वाला था। पिछले तीन दिनों से बारिश अपने कहर पर थी। रात के करीब ९। ३० बजे पापा को दादर से गोंदिया रवाना कर लोकल पकड़ बोरीवली पंहुचा। बारिश आडी तिरछी चलती थी। एक छाते से बारिश के प्रहार से लड़ने का साहस जूटा किसी तरह रोड पर ऑटोरिक्षा के इंतजार में खड़ा हो गया।



उस रात मौसम कुछ ज्यादा ही नाराज़ लगता था। सडको पर पानी भरने लगा था और आसपास एक अजीब सी वीरानी थी। ऑटोरिक्शा जैसे चुन चुन के लोगो ले जा रहा हो। कुछ देर कोशिश कर, पैदल चलना ही जायज़ समझा। बारिश इतनी तेज़ थी की छतरी के सहारे खुदको बचाना मुश्किल था। लगातार बारिश में छतरी को सहेज रखने की जिम्मेदारी का अहसास और भी बढ़ा हुआ होता जब छतरी नयी खरीदी गयी हो। और हाँ, छतरी नयी भी हुई तो अपने दायरों के बहार सेवा नहीं दे सकती थी। काफी दूर चलने पर आखिर एक रिक्शा नसीब हुआ।



एक भीगी सी ख़ुशी के साथ रिक्शा में खुदको सेट किया और छतरी बगल में सीट पर रख खुदको व्यवस्थित किया। मौसम के मिज़ाज़ सुधरने के कोई आसार नहीं थे। कुछ सात-आठ रिक्शा रुके ही नहीं और बहुतसो ने मना किया था। मन छीन भींन और पूरा आलम बेतरतीब था। बारिश में चलती ठंडी हवाओ ने दिमाग को गरम कर रखा था। एक नज़र ड्राइवर पर डाली। वह अपनी किसी धुन में रास्ते पे नज़रे गढ़ा पानी के बिच रास्ता निकल रहा था। सोचा जाने कौनसी मज़बूरी में मेरा भार उठा रहा होगा। अँधेरे में चेहरा कुछ बता तो नहीं सका पर सीने में कोई बोझ लिए मशीन सा लगता था। मेहनत- मजदूरी और मजबूरी का पसीना बस कहानियो में ही खुशबु बिखेरता है। किताबो में छपने के लिए बातें अच्छी लगाती है। असल में तो एक दिन गर खुशबू लगाना भूल गए तो दिन भर बेचैनी रहती है। सड़को पर जमा पानी सफर को और लम्बा करता रहा। खयालो की तंत्र टूटी जब घर के करीब पहुंचे और उसने पूछा के कहा मुड़ना है। मीटर पर नज़र डाल बटुवे से एक १०० के नोट उसे दिया।



चेहरों के पीछे चहरो में जिंदगी चलती है। वो जो नज़र आता मानो सब मुखौटे ही है। वो मेरी और आखें फाड़ के देखने लगा जैसे गुस्से से कहा रहा हो के क्या अब इसकी बासुरी बना यही प्रोग्राम शुरू कर दे । क्या गुजरा था उसमे मैं नहीं जानता पर बहुत तैश में आकर उसने मुझे चिल्लर देने को कहा। धो धो बारिश, रात का समय और अँधेरा। खोजने लगा के कही चिल्लर हाथ लगे। फिर भी उसे टटोलने के लिए पूछ ही लिया के गर चिल्लर न ही हो तो क्या। वो चेहरा जो छुपा था एक परत पीछे अब सामने आया। तिलमिलाया सा मुझपे बरसने लगा। सब मेरी समझ के बहार था और फिर मुझमे छुपे चहरे ने भी करवट ली। बात बढ़ते चली गयी।



गरीब और मजबूर से कमजोर कौन होता इस जहाँ में। पहले पहले कुछ जवाबदेही की उसने और फिर बात गाली गलोच तक पहुंच गयी। वो निस्तब्ध सा सुनता रहा। बात यहाँ तक पहुंच जाएगी शायद उसने सोचा नहीं था। या फिर आदत भी हो, परदेश में आत्मासम्मान को की बलि देकर खून के घूट पीने की। मज़बूरी और गरीबी कुछ सिखाये न सिखाये, इन सब कलाओ में माहिर कर ही देती है। मानो उसने भी बस युही जीने की कला सिख ली हो। वो फ़रिश्ते सा मिला था इतनी बारिश में जब उसके सारी बिरादरी ने पीठ दिखाई थी। वो कुछ कहा न सका और बुदबुदाते हुए निकल पड़ा। मुझमे छुपे झूठे अहंकार ने कुछ ख़ुशी मनाई होगी। मुझको इसकी कोई खबर नहीं थी।



घर पहुंच स्नान कर खाने पर सविस्तार झगडे वाली बात छोड़ बाकि स्टोरी वाइफ और मम्मी को सुनाई। जान के ड्राइवर वाले एपिसोड पर ज्यादा तुक नहीं दिया। कही शायद मेरा मन भी कुछ ग्लानि से भर आया था। चिल्लर ही तो मांगी थी और वो भी अपने मेहनताने की। कुछ दो चार पैसे ज्यादा देकर छूट भी सकता था और न कोई बवाल होता। दीखता नहीं वो जो छुपा रहता पीछे चहरे के बस आतुर ही रहता बाहर आने की लिए। अक्सर जब हम हारते नज़र आते, उस पीछे के चहरे को सामने कर देते।



मन कुछ भारी सा लिए सुकून पाने मोबाइल की और नज़र डाली। पर मोबाइल कही नज़र नहीं आता था। पहले सोचा यही कही रख दिया होगा पर फिर जब काफी ढूंढने पर भी जब ना मिला तो धैर्य टूटने लगा। धीरे से घरवाले भी उसके खोज में लग गए। खोज आगे और दिमाग पीछे चलने लगा। स्टेशन से लेकर घर तक के सफर को क्रमबद्ध करने लगा। मिलता क्या मिलता वो तो साइलेंट मोड पर ऑटोरिक्षा के पिछली सीट को प्रकाशमय करता रहा होगा।


अब बातें होने लगी और बातें बढ़ने लगी। कोई कहता झगड़ा नहीं करना था , कोई कहता नया मोबाइल देख किसका ईमान न डोलेगा। जब गाली गलोच तक बात पहुंची तो भलमनसी भी समय  के सामने हार जाएगी। इनही तुकबंदीओ के बिच लगातार कॉल करते रहे और इसी उम्मीद में घर छानते रहे के कही घर ही में ना मिसप्लेस हो गया हो। कुछ अपने दोस्त भाइयो को भी काम पे लगा दिया पर कोई आवाज न आयी हाँ कॉलर ट्यून   सुनाई बस देती थी। थक हार के अब सोने की तैयारी में लग गए। बारिश का यौवन अब भी उफान पे था। उसके बूंदो की सरसराहट में मन का कोलाहल धीमे धीमे शांत  सा हो गया। जिस चहरे ने तैश में आकर गाली गलोच की थी अब वही उन बरसती बूंदो के अट्टहास में सुकून की तरकीबे संजोने लगा। 


बस आँख लगने को ही थी के अचानक एक मित्र से खबर मिली के ड्राइवर से बात हो गयी और वह दूसरे दिन मोबाइल लौटने आएगा। उसी ने फ़ोन किया और अपना नंबर दिया था। तुकबंदीओ को विश्राम आया और घरवालों ने उसकी भलमानसी  के दो चार कसीदे रच दिए। अब भी ईमान जिन्दा है , हमने कभी कुछ बुरा न किया , ऊपर वाला सब देखता है और भी बहुत कुछ बाह निकला कृतज्ञ आत्माओ के मुख से।



रात काट गयी और बदल छठ गए। सवेरा हलकी धुप ले आया। अपने नित्य कर्मो से निबट मैं तैयार बैठा था। करीब ९ बजे मैंने उसे ग्लानीमय ह्रदय से फ़ोन लगाया। बहुत ही अदब से उसने कहा के साहेब ५ मिनट में गेट पर आ जाईये। उसी सड़क पे किसी सवारी को छोड़ने आया था। कल के अहम् ने जो मुझे कुछ पल के लिए जमीन से कुछ ऊपर उठा दिया था, आज उससे कुछ ज्यादा धसां महसूस होने लगा। उसकी जबान में जो सीधापन और सलीका था, उसने मन को और कुंठित कर दिया।



अपने राग, द्वेष, कुंठा और कृतज्ञता को संयोजित कर निर्विचार सा गेट पर उसका इंतजार करने लगा। कुछ ही देर में एक रिक्शा गेट के सामने रुका और एक मुस्कुराता हुआ अधेड़ ड्राइवर बाहर निकला। हाथ जोड़ के नमस्ते किया और कहा के कल तो आपने बड़ी गाली गलोच कर दी। हलकी बढ़ी हुई सफ़ेद होती दाढ़ी, मैले से सिलवटों से भरे कपड़ो में लिबटा हुआ कोई ५५ वर्ष की आयु का गेहूवा अधेड़ व्यक्ति था। कुछ चौड़ी से नाक, रसहीन गाल और सुर्ख धंसी हुई आखें जिनमे लगता जैसे जिंदगी की मस्सक्कत ने सिर्फ बस एक ही रंग भर दिया हो। गरीबी और लाचारी आदमी को वक़्त से पहले बूढ़ा बना देती है। फिर भी चेहरे पर एक कोई थकान नहीं थी। उसकी करूण मुस्कान मेरे छुपे हुए चेहरे को द्रवित करने के लिए काफी थी। उसका सामना करने की हिम्मत मुझमे न थी।



बात को सँभालते हुए मैंने कहा के हो जाता है कभी कभी, हर व्यक्ति अपनी जीवन के दाव पेचों में आपा खो बैठता है। इस शहर में सुकून के लिए भी भागना ही होता है। सब बस बेइन्तेहा भाग रहे और इसी भाग दौड़ में हम वो भी खो देते जो साथ लाये थे। शब्द तो नहीं थे पर किसी तरह उसकी बात का जवाब देना चाहता था। पता नहीं उसे क्या समझा, उसने तुरंत अपनी रिक्क्षे की सीट उठायी और एक प्लास्टिक के थैली से मोबाइल निकल मेरे हाथो में दे दिया। उसने कहा साहब चेक करलो। कल रात जब रिक्शा मालिक के पास छोड़ घर जाने को हुआ तब अचानक पीछे की सीट से रौशनी नज़र आयी। बात समझ आ गयी थी पर इतनी बारिश में कैसे लौट के आता। फिर ट्रैन पकड़ के घर भी जाना था। इतनी बारिश फिर ट्रैन का भी क्या भरोसा। बहुत सी तो कैंसिल हो चुकी थी। सुना था आधा वसई पानी में डूबा है। लोग बेघर हो गए।


सुबह जब घर से निकला तो अपनी इच्छाओ को ताक पे लगा आया था. घर में तलवो को छूता पानी रिस आया था. किसी तर सामान की गठरिया बना पलंग पे रख दी. पति पत्नी मिल के किसी तरह जितना हो सके कमरे के अंदर से पानी निकाल बाहर करते. कुछ देर में फिर वो भर आता . बच्चे को बुखार चढ़ आया. काम पर जाना भी जरूरी था. रुक जाने से रिक्शे का भाड़ा थोड़े ही रुकता. बारिश और एक दो दिन ना रुके तो घर की दीवारों को अपने चपेट में ले लेती. और जब पानी उतरेगा तो मरन्मत भी मांगेगा. इन्ही उदधबुन  में दिल पर पत्थर रख दिन चलता गया और रिक्शा भी.


रात जब वो घर पंहुचा तो सारे महौल्ले में एतिहातन बिजली गुल कर दी गयी थी। बारिश तब भी उफान पर ही थी। मानो प्रलय की दस्तक हो। एक अजीब नीरसता लिए सारा महुल्ला अँधेरे में खोया हुआ था। पानी ने सब कुछ पाट रखा था। सड़क सूझती नहीं थी। घर पंहुचा तो पाया के पानी घुटनो के निचे तक भर आया था। कमरे के कोने में जलती मोमबत्ती एक लाइट हाउस सी प्रतीत होती थी। पलंग पे सामान की पोटलियों के बिच बच्चा सो चूका था। बुखार अब उतर चूका था। पत्नी लूटी पुटी सी उसके सिरहाने बैठी थी। एक क्षण के लिए लगता जैसे सारा साजो सामान लिए दोनों किसी यात्रा पे निकले हो। उसकी आखों से प्रतीत होता के जैसे कोई रोया तो हो पर आंसू न बहे।



वो थाली में चावल और सब्जी लेकर आयी और उसने जो दिन गुजरा उसे खाते खाते बताता गया। फिर जेब से निकाल मोबाइल उसके हाथो में दे दिया। उसके शब्दों का बाँध अब तक जो बांधे रखा था वो टूट गया। क्यों भला जब मालुम हुआ तो वापस न कर आये। क्यों इस पाप को अपने सर ढोते हो। कितने परेशान होंगे वो, क्या सोचते होंगे। जीवन में पीड़ाये ऐसे ही काम नहीं, क्यों भला और बलाये लेते चले। देखो अपने चारो और , क्या संचय किया इस पुरे जीवन में ? सब बहे चूका है। गरीब है , भगवान् भी अपने नाप तौल में इल्जामो की सुरुवात गरीबो से ही करेगा। बरबस टप टप उसके आंसू बहाने लगे। निवाला हलक से के हलक में रह गया। उसकी गलती न होकर भी वो पाप का भागीदारी बन बैठा।



उसने उसे समझाया के लौटना मुमकिन नहीं था। उसके मन में भी कोई फरेब न था। विचारो की तंत्रा में मोबाइल तो था ही नहीं। बस घर लौटना था उसे। अपने बच्चे से , पत्नी से मिलना था। ऐसे ही छोड़ गया था उन्हें लड़ने के लिए अपनी बेबसी से और दिन भर में किसी कुंठा के लिए भी कोई जगह नहीं छोड़ी थी। और तब ही मेरे मोबाइल से रौशनी ने सारे कमरे को प्रकाशमान कर दिया। पत्नी ने कॉल रिसीव कर पति के हाथो में दे दिया। उसने अपना फ़ोन नंबर देकर सुबह लौटने की बात कही। 

मैंने अपना पूरा जीवन जिस सार को समझने में लगा दिया, उसने कुछ मिनटों में अपनी बात कर उसे समझा दिया। उसे पास बुलाकर गले लगाना चाहता था। जाने क्यों भला क्यों रोक लिया। हाथ बढे , खुदको झुकाकर उसका अभिवादन किया और हाथ मिलाकर एक हज़ार का नोट उसके हाथो में रख दिया। उसने बढ़ी ना नुकुर की , मैंने बच्चे का वास्ता दिया और वो प्रेम में खुदको विस्तारित कर कृतज्ञ मन से स्वीकार कर चला गया।



अपने खोखले अहसास को फिर मैंने कुछ रुपयों तले दबाया था। मेरी समझ बस उतनी ही चलती थी। हमने अपने अस्तित्व का खोखलापन बस इन्ही रुपयों पैसो से भरा है। हम भी जून्ज रहे और वो भी, बस फर्क है। हम आसमाँ की तरफ देख जमीन से बेरुख हुए, वो जमीन में धंसा बस आसमाँ खोजता है।


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