Rahul Mohne

Others

5.0  

Rahul Mohne

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Pink Slip

Pink Slip

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जब भी आइना देखा खुद को संवारते, एक खूबसूरत उम्दा बेहतरीन शख्स को पाया था । आईने से प्यारा कौन? सबको खूबसूरत ही लगता। मैं भी अपने बालों में तेल डाल कंघी कर जब खुद को कुरेदता तो आत्मविश्वास की पराकाष्ठा छू लेता। वह वही जताता जो तुम्हारे आखों में है। झूठ हो या सच हो, वह सब हमसे है, वो तो सच ही कहता।


शाम ढल चुकी थी। मन में उन्माद था। जीवन के परिपेक्ष में ऐसे तो हम तीन ही थे । मैं ,मेरी पत्नी और मेरी माँ। और सब आतुर थे के एक नया मेहमान आने वाला है। मेरा जीवन चाहे जैसे भी जद्दोजहद से गुजरा हो पर उसके लिए ये सुर्ख तपी आखों में भी छोटे छोटे सपने तैर आते थे। खैर, महीने का आखिरी सप्ताह और घर लौटते वक़्त पैसे कम थे। पर खबर अच्छी थी। तंग जेबों को झटककर कुछ मिठाई लेली और घर पंहुचा। बेवजह मिठाईयां हमें औरों की खुशियों से ही हासिल होती। माँ और पत्नी समझ गयी के कोई वजह तो छुपी है। हमारी अभिलाषाएं संकुचित थी और साधन सीमित। शायद तंग जिंदगी व्यक्तित्व को सरल कर देती है । यही सरलता भाव भंगिमाओं से सबकुछ बूझ लेती। हाथ में पानी का गिलास थामे मैंने बताया के एक नयी नौकरी लगी है और आमदनी में कुछ इजाफा। पत्नी ने एक हाथ अपने पेट पे रख मुस्कुराते हुए गिलास लिया और माँ ने अपनी पूरी कोशिश कर दोनों हाथ माथे पे जोड़ अपने गर्दन को झुका कुछ बुदबुदाती रही।


मुझमें कुछ अलग नहीं था। बहुत ही साधारण सा व्यक्तित्व का जैसे कोई दास हो। अपने परिवार और उनकी जरूरतों के लिए जीवन की सारी परीक्षाओं से गुजरता रहा। काम के प्रति एकनिष्ठता, मेहनत, ईमानदारी और सजगता; बस यही साधन संजो रोज अपने घर से निकलता। चंद रुपयों के बढ़ोतरी ने तंग तानो बानो से नयी रौशनी बिखेरी थी। जहा महीना खत्म होते होते इच्छाएं निठल्ली होने लगाती हो , ये रौशनी का स्पर्श मात्र उम्मीदों को चकाचौंध करने लगता।


वक़्त गुजरता गया । सब खुशनुमा था । नए लोग , नयी चहल पहल और कुछ नए पैसे। अपनी सासो में सुगंध कैद कर इन्ही रेलमपेल में मदमस्त सा झूमता । खूब मेहनत करता ।वह खुशबू थकने न देती । मेरा आइना मुझपे निसार था । अबके कभी वो भी मुझे देख मुस्कुरा देता। उस चौकोर, काले, कठोर व कुंठित चहरे पर मुस्कराहट के रंग कम ही देखे थे। मेरा प्रेम अपने माँ की गर्भ में कभी पैरो से मारता, कभी सुकून से सो जाता। मुझमे और पत्नी में बातें काम ही होती, पर हाँ, उसकी सादगी और बोलती आखें संवाद को पूर्ण कर देती।


माँ जानती थी मेरे कष्टों को। बुढ़ापे के दर्द को अपनी चादर में छुपाती थी । उसने पेट काट काट मेरे आईने में रंग भरे थे. बाप का साया तो  बचपन में ही आसमानी हो गया था. दुनिया को चाहे जो नज़र आये , मेरी सूरत में उसकी त्रासदी और परिश्रम साफ़ झलकता है । एक माँ के लिए उसके बच्चे के ख़ुशी से ज्यादा क्या होता। गरीबी व्यथा को गाथा तो दे पाती पर उसे कोई गीत बनाना न चाहता। अपने सिमित रंगो में ही चित्रों को सजाना होता । उसने बखूबी निभाया था ।


घर में किलकारियां उठने लगी थीं । जीवन में नयी धुनों के बीच व्यवस्थाव का केंद्र बिंदु बदलने लगा। बेरंग दीवारें और मटमैले दरवाजों के सानिध्य में वात्सल्य की वर्षा होने लगी। काम पर जाते हुए जब एक बार जी भर के उस बच्ची की और देखता तो मन अपने कर्मो और कर्तव्यों के प्रति और दृढ़ हो जाता। अपनी पूरी ऊर्जा मैंने अपने काम में लगा दी । एक और उसका वात्सल्य और दूसरी और बढ़ती जिम्मेदारी का अहसास था । जानता था मेरा वजूद इस छोटे से कुनबे से है और इनका मुझसे । यहाँ सपनो की गुंजाइशे तो थी  पर उनके सार्थक होने की लड़ाई का मैं अकेला कर्णधार था।


सीमित साधनो में गरीबी को भी सहेज के रखना होता। ये बहुत निश्छल और निष्कपट होती। किसी धाराप्रवाह की तरह। वो जीवन के रास रागों और रंगो को एकजुट कर हमें अपने साथ बहाने को मजबूर कर देती।जाने कहाँ , कौनसे किनारे और मंजिल कैसी इन उताहपोह  के लिए कोई गुंजाइशे नहीं । बस बहते रहना यही दस्तूर समझ मन व मस्तिष्क को रिझाते  रहता। 


और फिर एक घटना घटी। अभी बमुश्किल मुझे साल भर भी नहीं हुआ था। अचानक एक दिन मुझे बेकार घोषित कर दिया गया। ईश्वर भी शायद विवशताओं में ही परीक्षा लेता है। वैसे भी, मेरा संघर्ष बिना किसी हथियार के मेरे कर्मस्था की चरमराती ढाल पे अवलम्बित था। मुझे तो पता ही नहीं के आखिर क्यों किन्ही अदृश्य हाथो ने मेरी एकमेयो आधारशिला को भी चकनाचूर कर डाला। ऐसा लगा के मेरा कत्ल भी हुआ और मेरे ज़ख्मों को रिसते देखने के लिए जिन्दा भी छोड़ दिया हो। अपने घावों से बहते लहू को देख, आखें बंद कर, अपने चहरे को हथेलियों में छुपा अँधेरे में उतारते अजीबोगरीब रंगो को देखता रहा। स्तब्ध चित्त एक गुबार एक क्षण में विचारो के तने बनो से होता गले को अवरुद्ध करने लगा। आखें भीग आयी थीं।


जिस कर्मचक्र के पहियों पर अपनी गरीबी का बोझ उठा पाता था , आज उसकी कील किसी ने निकाल दी। उस घूमते चक्र में जाने कितने रंग थे अब उनमे से केवल श्याह अँधेरा झाक रहा था। जीवन के सारे किरदार एक एक कर उन अंधेरो से झाकने लगे। यकायक बहुत अकेला हो गया। कही चीख सुनाई देती थी। जैसे खोया हुआ बच्चा माँ के लिए रुंधे गले से पुकारता हो। पत्नी की कोमल हसीं और नन्हे का शीतल मुख, मुझे मुझसे जुदा करने लगी एक भयावह एकांत की ओर।


शाम ढल चुकी। नए साल की तैयारियों में पूरा शहर रोशनी में अपने यौवन को समेटे हुए था । मिठाई वाले ने अपनी दूकान और सामान कुछ और बाहर तक सजा रखा। कांच से झांककर एक नज़र रंगबिरंगी मिठाइयों पे घुमाई। बरबस नस्फुटो में पुरानी खुशबु भर आयी। घर पहुंच सीधे स्वच्छ हो नन्ही के पास जा उसे निहारता रहा। मुझे देख अपने हाथ पैरों को और तेजी से चलाने लगी। मेरी माँ अपने घुटनो की एंठन को दर किनार कर अपने आँचल से थाली को साफ़ कर लायी । पत्नी ने पानी के गिलास भर थाली परोसने लगी। अपने बैग से एक डिब्बा निकाल पत्नी के हाथो में दिया। दोनों महिलाओ ने विस्मित निगाहों से मेरी और देखा और उसके पहले कुछ पूछती मैंने कहा के ये जाते हुए वर्ष को धन्यवाद् है।


रात सब सो चुके थे। मुझे नींद न थी। रात बहुत हो चुकी थी। कमरे की एकमात्र छोटी सी खिड़की से बाहरबीच बीच में आसमान पर आतिशबाज़ी नज़र आती थी। उसकी रौशनी में बार बार आईने में मेरा चेहरा चमक उठता। बालो में तेल डाल कंघी करने लगा। तब आईने ने मेरी आँखों में झांककर कहा के नया साल, नयी रौशनी, नया जीवन और नयी उम्मीदें । बस कदम भर बढ़ाना है। मेरे चहरे पे कुछ सोच मुस्कान थिरक आयी। वह वही जताता जो तुम्हारे आखों में है। झूठ हो या सच हो, वह सब हमसे है, वो तो सच ही कहता।


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