अपनी नजरों में
अपनी नजरों में
घर्र-घर्र की आवाज़ होते ही सवारियाँ बस की ओर दौड़ पड़ी। पहले-पहल एक युवा अपनी अटैची सम्भालता हुआ चढ़ने लगा कि बोरी से उसका पैर अड़ा, वह लड़खड़ाकर, बस कंडक्टर को घूरता हुआ रुका।
तभी पीछे से आवाज़ आयी- “अरे बचुआ! बढ़ो हल्दी, बाद में झगड़ना। अभी हमऊ सबका चढ़न देओ।”
किसी की चावल की बोरी सीढ़ियों के पास रखी हुई थी। कंडक्टर ने कई बार आवाज लगाई थी, लेकिन उसको उठाने कोई नहीं आया था।
धीरे-धीरे सब चढ़े, पलटवार करके कंडक्टर को घूरे। कुछ भिड़े । कई चीखे - “रास्ते में कौन सामान रख गया भई।” लेकिन सब जल्दी में थे। सबके लिए एक मात्र लक्ष्य था, खाली सीट को कब्जियाना।
बैठते ही इधर-उधर नज़र दौड़ाते, पसीना सुखाने के लिए खिड़की की साइड वाली खाली सीट देखते ही, जल्दी से लपक लेते।
धीरे-धीरे बस लगभग भर गई थी लेकिन चढ़ने वाले अब भी आ रहे थे। बोरी के कारण लड़खड़ाते, आग्नेय दृष्टि से घूरते, कंडक्टर की सीट को,ललचाई नज़रों से देखते ! लेकिन कंडक्टर के मना करते ही, पीछे जाकर खड़े हो जाते थे।
हाँफता हुआ एक व्यक्ति आया, दौड़कर चढ़ते वक्त बोरी से वह भी लड़खड़ाया, तो चुपचाप बोरी उठाकर उसने एक किनारे कर दिया। बस में ख़ुसूर-फुसर शुरू हो गयी।
एक व्यक्ति गुस्सा होता हुआ बोला – “क्या भाईसाहब ! आप किसी की टाँग तुड़वाने के लिए रास्ते में बोरी रखकर गए थे ?”
“मेरी नहीं है! मैं तो अभी चढ़ा हूँ। भीड़ देखकर सामने पान खाने चला गया था।”
“हमरी है बबुआ ! जरा अपने बचुआ के लिवावे खातिर बस-अड्डे के दरवाजे तक चली गई रहेन।” अपने बेटे को बोरी उठाने को कहती, एक बुढ़िया तेजी से बोरी की ओर झपटी।उस व्यक्ति को अपनी सीट देकर, सबकी तरफ वक्र-दृष्टिपात करते हुए, कंडक्टर ने व्यंग्य भरी आवाज़ में कहा– “किसी का तो जमीर जिन्दा है ! भाईसाहब! आपको पहले आकर चढ़ना था ! कम-से-कम ये सभी, गिरने से बच जाते।”