अंतहीन सफर
अंतहीन सफर


सुभाष और उसकी पत्नी लक्ष्मी आजमगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव से रोजी रोटी के जुगाड़ के लिए दिल्ली में आ कर बस गए थे। किसी भी प्रकार की कोई तकनीकी शिक्षा और शिक्षा न होने के कारण वो अकुशल मजदूर के रूप में काम करने लगा था। समय के साथ परिवार में वृद्धि हुई और उनके यहाँ एक लड़का हुआ, दोनों पति पत्नी ने बच्चे का नाम गोवर्धन रखा। परिवार बढ़ने से खर्च में भी बढ़ोतरी हुई और उस खर्च को वहन करने के लिए लक्ष्मी को भी पति के साथ मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ा। दोनों के साथ कमाने के कारण खाने पीने की दिक्कत उन्हें नहीं हो रही थी। समय के साथ परिवार का दायरा और बढ़ा और गोबर( गोवर्धन को सुभाष प्रेमवश इसी नाम से बुलाता था) को एक बहन मिली।
चंद महीनों के बाद लक्ष्मी फिर काम पर लौट आई क्योकि प्रसव पूर्व एवं पश्चात के कुछ महीने उसके काम न करने के कारण, उनकी सम्पूर्ण संचित पूंजी खत्म हो चुकी थी और बामुश्किल दो वक्त के भोजन का प्रबंध हो पा रहा था। अभी लक्ष्मी को काम शुरू किए कुछ ही दिन हुए थे जब काम के लिए गए पति पत्नी को ये पता चला की किसी कोरोना के कारण आज तो काम होगा ही नहीं और ये बात देश के प्रधानमंत्री जी ने खुद टीवी पर बताई है।
दोनों घर( किराए का 10×6 कमरा, जो इस छोटे से परिवार की गृहस्थी समेटे था) वापस आये इस उम्मीद से की ये कोरोना जो भी है जल्द ही वापस चला जाएगा जहाँ से आया है वहां। लक्ष्मी के बगल वाले कमरे में रहने वाली निर्मला जो किसी मास्टर साहब के यहाँ काम करती थी ने पानी भर रही लक्ष्मी को बताया की 'बहिन जानत हउ मास्टर साहब बतावत रहलन की ई कोरोना बहुत खराब हौ, ई छुआछूत से फईले वाली बीमारी हौ जाऊन चीन से आयल हौ ओहि के कारण इ सब काम धंधा, बाजार हाट सब बन्द हौ और तो और बहिन ई लॉकडाउन लंबा चली इहौ कहत रहलन मास्टर साहब। निर्मला की बातें सुनकर लक्ष्मी थोड़ी सहम सी गई और कहने लगी ' ई बानर जैसे मुँह वाले सब चीन चौन का नाश होय न जाने कहा से ई बीमारी भेज देहलन, सब काम धंधा चौपट हो गइल'। दिन पर दिन बीत रहे थे,
काम मिल नहीं रहा था, घर पर कुछ बचा नहीं था, किसी प्रकार की कोई सरकारी सहायता मिल नहीं रही थी और मकान मालिक का अलग तगादा रोज ही जारी था।
छोटे से परिवार का जीविकोपार्जन दोनो दंपतियों को अब दुष्कर लगने लगा था, लक्ष्मी ने अपने पति सुभाष से कहा 'ई सब से बढ़िया रहत हम हनी गांव रहल होइत', इस पर सुभाष ने मुरझाए स्वर में कहाँ 'गाँव जाए खातिर रेल भी तो चले चाही, ई ससुर कोरोना के कारण रेल मोटर सब बन्द हौ' और इसी वाक्य के साथ दोनों शांत हो जाते है तथा लक्ष्मी अपनी दुधमुंही बच्ची को दूध पिलाने लगती है। हर बढ़ती तारीख के साथ निवाले और मुँह की दूरी भी बढ़ती जा रही थी। तब सुभाष ने एक दिन अपनी पत्नी से कहा 'जनलु उ पटना वाला राजू रहल न उ मेहरारू लइकन संगे पैदल गाँव चल गयल..हमहुँ लोग चली का'। ' हाँ जी चला चलल जाए सुनले हई उहाँ सरकार राशन कार्ड पर पांच किलो चावल फ्री में देत हौ, कम से कम खाये के कुछ तो रही' लक्ष्मी ने अपने पति से प्रतिउत्तर में कहा और घर की ओर निकलने के लिए बुधवार का दिन नियत हुआ।
बुधवार की सुबह कुछ जरूरी सामान, पानी की बोतल और बच्चों को लेकर दंपति लगभग 800 किलोमीटर के उस कठिन सफर के लिए चल पड़े। पहले दिन पूरे जोश के साथ चलते हुए ये लोग दिल्ली से लगती उत्तर प्रदेश की सीमा तक पहुँच गए जहाँ उन्होंने देखा कुछ लोग मुफ्त में भोजन बांट रहे है वहाँ जाने पर उन लोगो ने भोजन,
पानी और मास्क निःशुल्क दिया गया समाज सेवकों द्वारा। रात एक खुले मैदान में सड़क किनारे अपने जैसे कई अन्य परिवारों के साथ इन लोगों ने गुजारी और सूर्योदय से घंटो पूर्व ही अपने गंतव्य की राह पकड़ी। सुबह के साढ़े दस बज रहे थे, धरती तप रही थी, गला सुख रहा था, सूर्यदेव अपना प्रचंड स्वरूप अभी से ही दिखलाने लगे थे, आस पास पेड़ो के न होने के कारण गर्म हवा के थपेड़े चलना दूभर कर रहे थे फिर भी ये लोग निरन्तर बढ़े जा रहे थे। तभी एक बड़ी सी गाड़ी पास आकर रुकी और उससे दो सज्जन उतरे एक के हाथ में कैमरा था और दूसरे के माइक, उतरने के बाद ही माइक वाला व्यक्ति चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा 'ये है हमारे देश के मजदूर जो आज मजबूर हो कर इस तपती धूप में पैदल ही अपने घरों की ओर निकल रहे है, आइए इन्ही से जानते है की ये लोग ऐसा क्यो कर रहें है। तो आइए इनसे जानते है.. जी आपका नाम क्या है
प्रतिउत्तर में सुभाष ने धीमे स्वर में कहा 'सुभाष साहब'
माइक वाले पत्रकार महोदय फिर पूछते है 'तो सुभाष जी ये बताई आप क्या काम करते है और कहा जा रहे है, ये लोग आपके साथ है(पत्नी और बच्चों की ओर इशारा करते हुए)। सुभाष बोला, 'मजदूर है साहब, मजदूरी करते है, ई हमार पत्नी है, ई बच्चा गोबर( अरे गोबर नहीं गबर्धन बतावा लक्ष्मी ने टोकते हुए कहा) हां हां गोवर्धन और ई हमारी बिटिया, हम लोग अपने गांव जा रहे है'।
पत्रकार महोदय पुनः अपने उच्च स्वर में पुनः बोले ' तो सुभाष जी आप इतने छोटे छोटे बच्चो को लेकर पैदल ही इस कड़ी धूप में क्यो जा रहे है'। सुभाष ने उत्तर दिया ' गांव जा रहे है साहब बिना काम धंधा के दिल्ली में का खाते और बच्चन के का खिलाते' 'पर सुभाष जी प्रदेश सरकार तो कह रही है वो रोज लाखो लोगो को भोजन बांट रहे है आपको नहीं मिल रहा था क्या?' पत्रकार महोदय ने सुभाष की बात को लगभग काटते हुए प्रश्न दागा। लक्ष्मी तपाक से बोल पड़ी,' खाने को मिलता तो ऐसे धूप में पैदल थोड़े निकल लिए होते और वैसे भी सरकारें सब बड़का लोगन खातिर है हम जइसे गरीबन खातिर नाही'।
तो देखा आपने सरकारों के बड़े बड़े दावे हवाई सिद्ध हो रहे है और परिवार सहित तपती धूप में मजदूर पैदल चलने के लिए विवश है। आप बने रहिए हमारे साथ हमारे विशेष कार्यक्रम 'आखिर क्यों है मजदूर मजबूर' में, देखते रहिए हमारा चैनल। कैमरे के बन्द होते ही पत्रकार महोदय अपनी गाड़ी की ओर भागे और दरवाजा खोलते खोलते ड्राइवर से कहा एसी ज़रा तेज करो बाहर बहुत गर्मी है।
कुछ ही पलों में गाड़ी फर्राटे भरते हुए आँखों से ओझल हो गई। धूप अधिक और असह्य हो जाने पर सुभाष और लक्ष्मी बस यात्रियों के लिए बने टीन के प्रतीक्षालय में बच्चो के साथ सुस्ताने के लिए बैठ जाते है, उनके साथ उन्ही के जैसे एक दो परिवार और वहा आराम कर रहे थे। कुछ देर बाद हूटर बजाती हुई पुलिस की एक गाड़ी वहाँ आकर रुकती है और उससे उतरते ही दो पुलिसवाले मजदूरों पर लाठी लेकर बिना कुछ देखें सुने गालियां देते हुए उनपर लाठियां बरसाने लगते है और उन्हें भगाने लगते है। धूप और गर्मी के डर से रूके मजदूरों को उससे भी बड़ी विपदा ये वर्दीधारी लगे, यमदूतों को देखकर जिधर जिससे बन पड़ा उधर जान बचाकर भागें। भूख, प्यास, गर्मी, गाली, मार, प्रताड़ना सहते हुए निरंतर चलते रहने से इन मजदूरों के पैर भी जवाब देने लगे थे, जो कुछ दानी धर्मात्माओं से खाने पीने को मिल जाता खा लेते,
अपने पैरों के छालों को देखकर अपनी किस्मत पर रो लेते और अपने गंतव्य की ओर हो लेते। यूँही चलते चलते तकरीबन 400 किलोमीटर का सफर इन लोगो ने पाँच दिनों में तय कर लिया था और लखनऊ के करीब पहुँच चुके थे। वहाँ पर उन्हें एक ट्रक मिला जो उन जैसे ही भाग्य के मारों को ले जा रहा था। लक्ष्मी के कहने पर सुभाष ने भी ट्रक वाले से बात की पर उसके द्वारा मांगे गए पैसों को सुनकर वो शांत हो गया क्योकि उसका जेब इसकी गवाही चाह कर भी नहीं दे पा रहा था। अपने और पति के पैरों में पड़े छालों से रिसते खून और बच्चो के दर्द को देखते हुए लक्ष्मी आगे बढ़ी और अपने पैरों में पड़ी एकमात्र पायल(जो उसे उसकी सास ने अपनी एकलौती बहू को अपने अंत समय में दी थी) के बदले में ट्रक ड्राइवर से उन्हें उनके जिला मुख्यालय तक पहुँचा देने के लिए मना लिया। उस ट्रक पर भूसे की तरह भरकर अपने गॉंव की तरफ जा रहे सुभाष तथा लक्ष्मी एवं उनके जैसे असंख्य परिवारों का सफर निरंतर जारी रहा कभी रोजी रोटी के लिए तो कभी जीवन और साँसों के लिए।