आरती सिंह "पाखी"

Drama

5.0  

आरती सिंह "पाखी"

Drama

अनोखी चाहत

अनोखी चाहत

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मई का महीना था। गर्मी के असहनीय दिनों की शुरूआत हो गई थी। आसमान से सूरज मानो आग के गोलो की बौछार कर रहा था। आजकल तो मौसम भी बहुत

आलस्या-सा जान पडता है। गर्मी के ये दिन अक्सर यूँ ही बित्‍ते थे, हर तरफ सन्नाटा केवल साय-साय करती हवा, मेरा गला भी प्यास केे मारे सूखा जा रहा था,पास में ही एक ढाबा था गर्मी केे केहर से बचने केे लिए और अपनी प्यास को शांत करने केे लिए मैं उस ढाबे केे भीतर चला गया |

मैंने अपना बैग उठा कर टेबल पर पटक दिया, जैसे की अब मेरा उससे कोई नाता न हो। और कुर्सी पर बैठ कर कुछ गर्मी की झुन्‍झुलाहट से परेशान होते हुए वेटर को आवाज दी - "वेटर, एक ठंडी कोल्‍ड ड्रिंक की बोतल और समोसा ले आओ"।

दिन भर केे काम की वजह से मेरा शरीर थक चुका था, ऊपर से इस असहनीय गर्मी ने तो मानो मेरे होश उड़ा दिए थे।

 ढाबे पर काम करने वाले एक वेटर ने मुझे ठंड़े पानी का गिलास ला कर दिया I पानी की ठन्डी और बडी-बडी घूँट के साथ ऐसा जान पडता था, जैसे मेरे अन्‍दर की ज्‍वाला भी शान्त होती जा रही है।

पानी पीने के बाद मैंने उस वेटर को धन्यवाद कहा और फिर उसको फिर से कहा " मुझे समोसा और कोल्ड ड्रिंक भी चाहिए "। उसने मुझे मुस्कुरा कर देखा और सर हिला कर बिना कुछ कहे मेरा आर्डर लेने चला गया। मेरी बगल वाली बेंच पर कुछ कॉलेज केे बच्चे भी आ कर बैठे हुए थे, जो की अपनी ही अलग धुन में सवार थे, किसी को आस-पास बैठे लोगो से कोई मतलब नहीं। वेटर मेरा नाश्ता ले कर आ ही रहा था की उस टेबल पर बैठ एक बच्चे ने मजाक केे मूड में आ कर अपने पैर आगे कर दिए। और वो वेटर समोसे की प्लेट लिए हुए ही नीचे गिर गया।

" वहा संदीप भाई ! आपने तो कमाल कर दिया, इतने देर से बैठे बैठे बोर हो रहे थे, आखिर तुमने कुछ मोहोल बना ही दिया " रमेश ने संदीप को कहा।

संदीप : " अरे हाँ भाई ! इन लोगों को काम तो करना आता नहीं है और चले है हमारी खिदमत करने "

इतना बोलते ही उस टेबले पर बैठे सारे बच्चे बहुत तेज से हंसने लगे।

अब तक ढाबे का मालिक आ चुका था उसने स्थिति का जायजा न लेते हुए तुरन्त ही वेटर पर चिल्लाया "क्या बेवकूफी है राजू, इतनी मेहंगी प्लेट तोड़ दी, ऊपर से ड्रेस खराब हुई वो अलग और ये खाना बर्बाद करना भी तुम सीख गए हो, इसी वजह से तुम जैसे लोगो को खाना नसीब नहींं होता। चलो अब जल्दी से यहाँ की सफाई करो और हाँ ! इन सबके पैसे तुम्हारे पगार से काटे जाएगे, कुछ ज्यादा ही खुला छोड़ रखा है मैंने नौकरो को जो दिन पर दिन मेरे सर पर चढ़ते जा रहे है ...!"

वेटर सर झुकाए सारी बात सुनता रहा और फिर बिना कुछ बोले उसने वो जगह साफ़ की और मुझे खाने का सामान ला कर दिया। वह देखने में यही कोई 20-22 का होगा, उसका कद पांच फूट रही होगी, वो देखने में बहुत ही दुबाला-पतला‌ था, उसके चेहरे की हड्डियाँ भी उभर आई थी, पर उसकी आँखों और मुस्कान में कुछ रौनक ही थी, की जो लोगो को अपने और आकृष्ट करने में सहायक थी। दुबला पतला होने के बाद भी उसके शरीर‌ में एक अलग ही चुस्ती‌-फुर्ती थी। शायद यही कारण था की वो इतना कुछ हो जाने केे बाद भी अपने काम को बेहद खूबसूरती से करने की कोशिश कर रहा था। मेरे दिमाग से वो हादसा जा ही नहींं रहा था और मैं उस वेटर को ही देखे जा रहा था। मुझको घर जाने की जल्दी थी क्यूंकि माँ का फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहा था। एक कॉल तो पापा का भी आ गया और जब मेरे पापा का फ़ोन आता है तो फ़ोन से ज्यादा वाइब्रेट मैं होता हूँ। बिना वक्त और जाया करे मैं घर केे लिए निकल गया।

अगले दिन अपने दोस्‍तो से मिलने के बाद मैं घर जा रहा था कि वही ढाबा पड़ा। मेरे कदम न चाहते हुए भी उस ढाबे की और बढे जा रहे थे। अंदर पहुँच कर मेरी आँखे केवल उस वेटर को ही ढूंढ रही थी, पर मेरी आँखों को ज्यादा इंतज़ार नहींं करना पड़ा। मैं सीधा उसके पास पहुँच और 2 कप चाय देने केे लिए बोला। वो की तरह अाज भी मुझे देख कर मुस्कुरा दिया। सच कह रहा हूँ उसकी हसी गर्मी केे मौसम में किसी ठंडी हवा से कम नहीं थी, बदले में अाज मैं भी मुस्कुरा दिया और जा कर टेबल पर बैठ गया।

"साहब जी चाय ", उसने आ कर कहा और मेरी टेबल पर धयान से देखने लगा।

"रख दो और बैठ जाओ" मैंने कहा

"साहब जी, "मैं "", उसने कहा

फिर मैंने थोड़ा हसते हुए कहा " और क्या भाई 2 कप चाय मगाई है, और माँ कहती हैं चाय का मज़ा तभी है जब कोई साथ मैं पीने वाला हो "

" पर साहब जी मैं तो यहाँ पर काम करता हूँ, मैं ये चाय कैसे पी सकता हूँ " उसने कहा

" साफ़ बोल दो तुम मेरी चाय में कुछ मिला कर लाये हो, इसलिए नहीं पी रहे साथ में " मैंने उसकी चुटकी लेते हुए कहा।

इस बार उसके पास कोई चारा नहींं बचा वो बैठ गया। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा " अाज से तुम मेरे चाय की तपली वाले दोस्त "। वो इस बार भी सिर्फ मुस्कुरा दिया।

अब मैं उससे मिलने का अादि हो चुका था, मुझे जैसे ही थोड़ा समय मिलता उससे मिलने पहुँच जाता और ऐसा करते हुए अाज पूरे चार दिन बीत गए, और इन चार दिन की दोस्ती ने हमको ऐसा जोड़ दिया जैसे की हम जन्‍मो केे दोस्त हो !

आज भी रोज़ की तरह मैं चाय पीने केे मकसाद से पहुँच तो उसने बिना बोले ही चाय बनाई और 2 कप चाय लेकर मेरे पास आ गया। हम चाय पी रहे थे कि मैंने उससे पहले दिन का वकया पूछा की "इतना कुछ हो जाने केे बाद भी तुमको उन बच्चो पर गुस्सा नहींं आया अगर तुम्हारी जगह मैं होता होता तो सबसे पहले उन बच्चो को पकड़ कर पीट देता और अगर मुझे मेरा मलिक कुछ बोलता तो ये नौकरी ही छोड़ कर चला जाता।"

राजू पहले तो मेरी बात सुन कर मुस्कुरा दिया फिर सर नीचे करते हुए बोला " अच्छा थोड़ी न लगता है मुझे भी इस तरह से, रोज़ हर किसी केे ताने सुनना पर सच बोलूं दोस्त हालातों केे हाथो मज़ाबूर हूँ। "

"ऐसी भी क्या मज़बूरी यार ! कि तुम अपना अस्तित्व ही भूल जाओ" मैंने कहा

" नहीं, ऐसा कुछ नहींं है, " राजू ने क

"देखो अगर तुमको लगता है, मैं तुम्हारा अच्छा दोस्त हूँ, तो तुम मुझसे अपना दुःख बाट सकते हो " मैंने कहा

इस बार भी वो मेरी तरफ देख कर मुस्‍कुरा दिया पर अाज उसकी मुस्कराहट रोज़ की तरह नहींं थी।

उसने एक लम्बी सांस ली और मुझे कहा " शाम को सात बजे मिलना, तुमको कही ले कर चलना है, वही तुम्हारे हर प्रश्‍न का उत्तर मिल जायेगा।"

"ठीक है, शाम को मिलते है" मैंने कहा और वहा से चला गया।

अाज मुझे बेसब्री से शाम सात बजे की प्रतिक्षा थी। वैसे तो ढाबा मेरे घर से दस मिनट की दूरी पर ही है पर मैं साढ़े छह बजे ही घर से निकल गया। अाज मैं ढाबेके अंदर नहीं गया बाहर ही खड़ा रहा। थोड़ी देर में राजू बैग लिए बाहर आया

"तुम तो समय केे पबंद आदमी निकले " राजू बोला

"नहीं ऐसा नहीं है, बस अाज न जाने कैसे समय से पहले पहुंच गया " मैंने कहा

"अच्छा कोई बात नहींं, जल्दी चलो बस लेनी है"

हम दोनों ने बस स्टैंड की तरफ बढे और जल्द ही बस आ गई और हम चढ़ गए।

अब हम बस से उतर चुके थे और पहुँच गए थे एक मोहल्ले में जहां हर तरफ बड़े बड़े बंगलें और बड़े बड़े मॉल थे।‌ हम उन सबको पार करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे, आखिर इतना चलने केे बाद मैंने पूछा " यार हम जा कहा रहे हैं बता तो दो ? "

राजू : " बस कुछ दूर और फिर तुम्हारे, हर प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। "

मुझको कुछ समझ नहींं आ रहा था आखिर राजू केे दिमाग़ में चल क्या रहा है, और आगे क्या होने वाला है ...???

मैं बस उसके साथ कदम मिलते हुए चलता जा रहा था, पता नहीं हम किस दिशा में जा रहे थे और अचानक हम उन बड़ी बड़ी गलियों को छोड़ो कर ऐसी जगह पहुच गए जहां अाज तक मैंने कदम नहींं रखा था और न ही मुझको मालूम था कि इन बड़े-बड़े गालियों से होकर कुछ ऐसी तंग गालियाँ भी आती हैं जिनका अस्तित्व अाज तक किसी को नहीं मिला। हम चलते हुए अब बेहद छोटी गलियों से गुज़र रहे थे, जहाँ पर घर भी बिल्कुल आस पास बने थे, और गली केे दोनों और नालियाँ थी, जिन से बहुत भयंकर‌ बदबू आ रही थी। मैंने बदबू से बचने केे लिए अपनी नाक पर हाथ रख लिया पर राजू तो ऐसे चल रहा था, जैसे वो महक उसकी नाक तक पहुँच ही न रही हो...!!!

अब हम चलते हुए रुक गए और एक घर के बाहर‌ खड़े हो गए। उस घर की हालत बहुत ख़राब थी। टीन की चादर पड़ी हुई थी और गंदगी भरी पड़ी हुई थी,‌और हरत रफ मक्खियाँ भिन-भीना रही थी। राजू केे दरवाज बजा दिया।‌

अंदर‌ से किसी स्त्री की आवाज आई, "आती हूँ।"

दरवाज़ा खुला और एक छोटी सी तेरह - चौदह साल की‌ लड़की ने दरवाज खोल।

राजू : "पायल, जा माँ को बोल जल्दी से चाय बनाये, दद्दा आये हैं "

पायल : "अच्छा!"

हम घर के अंदर आये।‌ घर के अंदर का मौहोल बाहर के मौहोल से भी ज्यादा दयनीय था।‌ घर में केवल एक कमरा था, उसी केे एक कोने में चुल्हा जल रहा था। और पास में ही एक चरपाई पड़ी थी। जिस पर एक फटा चादर बिछा हुआ‌ था, हम उस चरपाई पर बैठ गए। राजू की माँ हमारे लिए चाय बना रही थी, और उसकी बहन हमारे लिए पानी का गिलास ले कर आ गई। मैंने पानी पिया।‌

मुझको कुछ समझ नहीं आ रहा था की राजू केे दिमाग में क्या चल रहा है वो आखिर मुझको क्या बताना चाहता है।

राजू बोला : "देख भाई ये हैं मेरे छोटा-सा संसार, और यहाँ केे हम राजा हैं ( वो मुस्कुरा दिया ) (फिर बोला) यहां पर मेरे जी मैं जो आता है करता हूँ, कोई बोलने‌ वाला नहीं है "..

"अच्छा" मैंने कहा

" और क्या यार बस इस दुनिया से बाहर निकल जाने के लिए ही मैं दिन रात मेहनत करता हूँ ‌, लोगों की बातों को सन कर ‌भी अनसुना कर देता हूँ, क्योंकि मैने सोचा कि जो कुछ मैंने सह लिया वहाँ तक तो ठीक है, पर अब अपने भाई बहन को वो सब सुनने नहींं दूंगा " राजू बोला

मुझे उसकी बाते बहुत अच्छी लगी। पहली बार एक ऐसे इंसान से मिला था मैं जो अपनी गरीबी पर रो नहींं रहा था, बल्कि उससे बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। 

मैं उससे और कुछ पूछता उससे पहले ही उसने बोला "चल तुझे कुछ और भी दिखाना है "

हम दोनों घर से बाहर आ गए। उसने 2-3 घर छोड़ कर एक दरवाज खटखटाया। दरवाजा एक आदमी ने खोला और दरवाजा खोलते ही बोला "राजू...!!!"

उसके मुँह से बहुत गन्दी बदबू आ रही थी, और उसके शरीर से भी हम उससे पांच कदम दूर खड़े थे, तब भी हमको बदबू आ रही थी।

मेरा वहा पर खड़ा होना भी भारी हो रहा था, और राजू उस घर मैं घुस गया। मजबुरन मुझे भी भीतर जाना पड़ा। अंदर घुसते ही और भी गन्दी बदबू का सामना करना पड़ा। ऐसा लग रहा था पूरे घर में शराब का छिड़काव किया गया हो। किसी तरह मैं खुद को संभाल कर बैठ गया। 

वो आदमी हमारे पास ही बैठ गया। राजू ने मेरा उनसे मेरा परिचय करवाते हुए कहा "इनसे मिलो, ये है पत्रकार, मिस्टर सतीश... "

मैंने अचंभे के साथ राजू को देखा, उसने धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रखा और मेरा हाथ दबा दिया। मैं जान चुका था, कि अब राजू जो भी मन में खेल खेल रहा था उसका वास्तविक प्रदर्शन मुझे करना था।

उस आदमी ने मुझे देखा और हाथ जोड़ कर बोला "नमस्ते"

बदले में मैने भी हाथ जोड़ लिए। राजू ने पुनः बोलना शुरू करा " ये हमारी बस्ती के बारे में लिखने आए है, और जो सही से इनकी बातों का जवाब देगा उसे उचित इनाम भी दिया जाएगा।"

मैने चेहरे पर प्रश्न चिन्ह लेकर राजू को देखा। उसने धीरे से कहा " पूछो दोस्त..."

मैं इन सबके लिए बिल्कुल तैयार नहींं था, पर अब मुझको ही सब सम्भालना था, क्यूंकि मैंने ही राजू से उसकी पहचान ‌के बारे में बात‌ कि और उससे जिद्द की कि वो क्यों लोगों के ताने सुना करता है, पर मुझे बिल्कुल नहींं पता था कि मेरे जवाबों का उत्तर मुझे कुछ इस तरह से मिलेगा। 

मैंने भी राजू की‌ तरफ‌ देखा‌ और पत्रकार का अभिनय करते‌‌ हुए बोला " हाँ ! मेरा नाम सतीश चौहान है, पेशे से पत्रकार हूँ, आज आप सबके बीच आपका साक्षत्कार लेने आया हूँ।‌तो शुरू‌‌ करते है,‌ आप मुझे पहले अपना नाम बताइए ? "

" मनोहर दास, नाम है मेरा " उसने कहा

"अच्छा तो मनोहर तुम काम क्या करते हों‌? " मैंने पूछा

" मोची का काम करते है‌,‌हमारा मतलब जूते- चप्पल सी लेते है "

"अच्छा, दिन का कितना कमा लेते हो ?" मैंने पूछा

"यही कोई ₹50/- ‌ तक " उसने कहा 

"यानि महीने केे ₹1500 है न ?"

"अरे,‌का बात‌ करते है साहेब,‌ लोगो केे जूता रोजना थोड़ी न टूटा करते है" उसने कहा

"अच्छा, तो घर का खर्च कैसे‌ चलता है ?" मैंने पूछा

" अरे साहब खर्चा‌ चल‌ जाता है छह बच्चे‌ है‌ मेरे सब कमा लेते है " उसने कहा

" अच्छा जब छह बच्चे हैं और कमाते भी हैं तो फिर ऐसी जगह क्यों रहते हो ? " मैंने पूछा

" अरे साहब रेड‌‌ लाइट पर भीख मागते‌ है,‌बच्चे‌ इतनी कमाई हो‌‌ जाती है कि घर चल सके,‌और‌ मेरी बाटली आ जाए " इतना कह कर वो हसने लगा उसकी हसी और भी भयंकर थी।

मैंने बात आगे बढ़ाते हुए पूछा "जब तुम अपने बच्चों का पेट पाल नहीं सकते तो इतने बच्चे पैदा ही क्यों करते हो ?"

"अरे साहब ! अमीर लोग बच्चे पैदा करते है ये सोचकर की वो बड़ा‌ होकर उनका उनका नाम करेगा, इसलिए उनके केवल एक-दो बच्चे होते है‌,‌ और हम सोचते हैं जितने ज्यादा बच्चे उतनी ज्यादा भीख " और वो फिर से तेज से हस दिया

उसका उत्तर सुन कर मैंं पूरी तरह से हैरान था। 

"अच्छा ! ( लम्बी सांस लेते हुए, थोड़ा रुक कर मैने पूछा) तो अपने बच्चों का दाखिला सरकारी स्कूल में क्यों नहीं करवा देते,‌वहा तो पैसे भी नहीं लगते, और तो और आपका बच्चा पढ़ लिख कर अच्छा आदमी बन जाएगा, आप सब इस दलदल से बाहर निकल जाओगे। "

"न साहब जी न,‌मेरा बच्चा जितना समय स्कूल में लगा कर आएगा‌,‌ उतने समय में तो काफी भीख मिल जाएगी। "

" और अगर हम आपके बच्चे को घर पर ही शाम को पढ़ने आये तब तो आपको दिक़्क़त नहीं होंगी" मैंने कहा

इस बार राजू ने प्रश्नचिन्ह लिए चेहरे से मेरी ओर देखा। मैने अपनी बात आगे बढ़ाई " मैंने विचार करा है कि हम एक संस्था (NGO) आपके क्षेत्र में खोलेगे और आपके बच्चों को शिक्षित करेगें‌।"

" मेरे को कोई दिक्कत नहीं है साहब आप कर सकते हैं, लेकिन दिन में मेरे बच्चे वही करेंगे जो मैं कहूँगा।"

मैने "हाँ" में सर हिलाया और राजू से कहा चलो। मैं और राजू चुपचाप घर से बाहर निकल आए।

राजू : " ये क्या बोल कर आ गए दोस्त ?"

मैं : "वही जो मेरे दिल ने कहा ? "

राजू : पर ये मुमकिन ही नहींं है "

मैंने कहा " देखो दोस्त मैंने सोचा है कि हम इस बस्ती केे हर घर मैं जा कर उनके परिवार वालो को समझा कर आएगे कि शिक्षा का क्या महत्त्व है, केवल भीख से गुजारा नहीं हो सकता है,‌ उन्हे अपने लिए तुम्हारी तरह आगे बढ़ना होगा ! समझे !"

"लेकिन तुम्हारी कोई सुनेगा क्यूँ भाई ? " राजू बोला

" हाँ ! पता है ये काम आसान नहींं, इसलिए मैंने सच में एक संस्था खोलने का निर्णय लिया है, तुम साथ दोगे ? "

" अच्छा ! हाँ जरूर, पर ये काम बहुत महेनत का है, यहा केे लोग बहुत ज़िद्दी है " राजू बोला

" कोई बात नहींं हम भी बन जाएगे " और मैं हस पड़ा

"लेकिन दोस्त‌ ...." राजू कुछ बोलता उसकी बात काटते‌ हुए मैं बोला, " हमारे इस काम से अच्छा ही होगा दोस्त और तुम चिंता न करो कम से कम यहाँ की आने वली पीढ़ी को तो सुधार ही सकते है, मेरा मतलब की इनके बाप की दारु बेश्क‌ हम न छुड़ा पाए, पर सोचो हमारे इस काम से जब उनके बच्चे शिक्षित होगे तो वो दारू नहीं पीयेगे ‌।‌मतलब हमने कितने सारे बच्चों को‌ गलत कामो से दूर रखेगे, और वो शिक्षित रहेगे तो किसी अच्छे रोजगार में जाऐगे....समझे "

अब राजू चुप था, मैंने आगे बोला "और पता है राजू अब कोई भी राजू अपने साथ गलत होने पर चुप नहींं होगा उसका सामना करेगा "

मेरे इतने बोलते ही राजू की आँखों मे आँसू आ गए।‌ मैने उसको‌ गले लगा लिया और हम दोनों की ही पलके भीग‌ गई।


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