Monika Agarwal

Inspirational

2.2  

Monika Agarwal

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अनोखा संबंध

अनोखा संबंध

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 शादी की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर हम दोनों पति-पत्नी बालकनी में साथ में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे।

 

खिड़की खुली थी, झिलमिलाते सितारे,  ठंडी ठंडी हवा के झोंके बहुत सुकून दे रहे थे मन आज से 12 साल पूर्व खिड़की के दूसरी ओर सितारों की दुनिया में झाँकने लगा| आज संसार की दृष्टि में हम एक आदर्श युगल हैं। प्रेम भी बहुत है अब हम दोनों में लेकिन कुछ समय पहले या कहिए कुछ साल पहले ऐसा नहीं था। उस समय तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है।

मुकदमा दो साल तक चला था तब... आखिर पति-पत्नी के तालाक का मुकदमा था।

तलाक के केस की वजह बहुत ही मामूली सी बातें थीं,  इन मामूली सी बातों को बढ़ा चढ़ा कर बड़ी घटना में ननद ने बदल दिया।  निलेश ने आव देखा न ताव जड़ दिए दो थप्पड़ मुझे। मुझसे ये अपमान नहीं सहा गया। ये मेरे आत्मसम्मान के खिलाफ था। वैसे भी शादी के बाद से ही हमारा रिश्ता सिर्फ पति-पत्नी का ही था। उस घर की मै सिर्फ जरूरत थी, सास को मेरे आने पर अपनी सत्ता हिलती लगी थी,  इसलिये रोज एक नया बखेड़ा। निलेश को मुझसे ज्यादा अपने परिवार पर विश्वास था और उनका परिवार उनकी माँ तथा एक बहन थी। मौका मिलते ही मैं अपने बेटे को लेकर अपने घर चली गई। मुझे इस तरह देख कर माता-पिता सकते में आ गए। मुझे बहुत समझाने की कोशिश की पर मैंने तो अलग होने का मन बना लिया था। मेरी जिद के आगे घुटने टेक दिए।

दोनों ओर से अदालत में केस दर्ज कर दिए गए। वे चाहते तो मामले को रफा-दफा भी किया जा सकता था,  पर निलेश ने इसे अपनी तौहीन समझी,  उनके रिश्तेदारों ने मामले को और पेचीदा बना दिया, न सिर्फ़ पेचीदा बल्कि संगीन।  सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा, यह भी कहा कि ऐसी औरत पतिव्रता नहीं होती। इसे घर में रखना,  अपने शरीर में मिंयादी बुखार पालते रहने जैसा है। बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह बढ़ती है,  सो उनकी तरफ खूब आरोप उछाले गए। ऐसा लगता था जैसे उस पक्ष के लोग कोई खेल खेल रहे हैं। निलेश ने मेरे लिए कई असुविधाजनक बातें कहीं। निलेश ने मुझ पर चरित्रहीनता का तो हमने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया। छह साल तक शादीशुदा जीवन बिताने और एक बच्चे के माता-पिता होने के बाद आज दोनों तलाक के लिये लड़ रहे थे। हम दोनों पति-पत्नी के हाथ में तलाक के लिए अर्जी के काग़ज़ों की प्रति थी। दोनों चुप थे,  दोनों शांत,  दोनों निर्विकार। मुकदमा दो साल तक चला था। दो साल तक हम पति पत्नी अलग रहे थे और इन दो साल में बहुत कुछ झेला था। मैंने नौकरी ढूंढ़ ली थी, बेटे का दाखिला एक अच्छे स्कूल में करा दिया था। सबसे बड़ी बात हम दोनों में से ही किसी ने भी अपने बच्चे की मनःस्थिति नहीं पढ़ी।

बेटा हमारे अलग होने के फैसले से खुश नहीं था। पर सब कुछ उसकी आँखो के सामने हुआ था, तो वह चुप था। मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता। दोनों एक दूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों। दोनों गुस्से में होते। दोनों में बदले की भावना का आवेश होता। दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिनकी हमदर्दी में ज़रा-ज़रा विस्फोटक पदार्थ भी छुपा होता। जब हम पति-पत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एक-दूसरे को देख कर मुँह फेर लेते। जैसे जानबूझ कर एक-दूसरे की उपेक्षा कर रहे हों,  वकील औऱ रिश्तेदार अकसर उनके साथ होते। दोनों पक्ष के वकीलों द्वारा  अच्छा-खासा सबक सिखाया जाता कि हमें क्या कहना है। हम दोनों वही कहते। कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते। तो फिर सँभल जाते। अंत में वही हुआ जो हम सब चाहते थे यानी तलाक की मंजूरी! पर थोड़ा सोचने का समय दिया गया। पहले उनके साथ रिश्तेदारों की फौज होती थी,  धीरे धीरे ये संख्या घटने लगी। निलेश की  तरफ के रिश्तेदार खुश थे,  वकील खुश थे, पर मेरे माता-पिता दुखी थे। अपनी-अपनी फाइलों के साथ मैं चुप थी और निलेश खामोश। यह महज़ इत्तेफाक ही था, उस दिन की अदालत की फाइनल कार्रवाई थोड़ी देर से थी और अदालत के बाहर तेज धूप से बचने के लिए हम  दोनों एक ही टी-स्टॉल पर बैठे थे। यह भी महज़ इत्तेफाक ही था कि हम पति-पत्नी एक ही मेज़ के आमने-सामने थे।

मैंने कटाक्ष किया-  मुबारक हो, अब तुम जो चाहते हो वही होने को है!

निलेश बोला- तुम्हें भी बधाई, तुम भी तो यही चाह रही थीं, मुझसे अलग होकर अब जीत जाओगी !

मुझ से रहा नहीं गया और मैं बोली- तलाक का फैसला क्या जीत का प्रतीक होता है?

निलेश बोला- तुम बताओ?

पर मैंने जवाब नहीं दिया, मैं चुपचाप बैठी रही और बोली, तुमने मुझे चरित्रहीन कहा था! अच्छा हुआ, अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा।”

निलेश-वो मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था!

“मैंने बहुत मानसिक तनाव झेला है”, मेरी आवाज़ सपाट थी न दुःख, न गुस्सा।

निलेश ने कहा- “जानता हूँ, पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन और आत्मा को लहू-लुहान कर देता है…

तुम बहुत उज्ज्वल हो। मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं करनी चाहिए थी। मुझे बेहद अफ़सोस है!!”

मैं चुप रही, निलेश को एक बार देखा। कुछ पल चुप रहने के बाद उसने गहरी साँस ली। कहा, “तुमने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था।”

“गलत कहा था”,निलेश की ओऱ देखते हुए बोली।

कुछ देर और चुप रही फिर बोली, “मैं कोई और आरोप लगाती लेकिन मैं नहीं…”

प्लास्टिक के कप में चाय आ गई…

मैंने चाय उठाई,  चाय ज़रा-सी छलकी। गर्म चाय मेरे हाथ पर गिरी… और हाथ झटका।

निलेश के मुंह से उसी क्षण ‘ओह’ की आवाज़ निकली। दोनों ने एक दूसरे  को देखा।

“तुम्हारी स्लिप डिस्क वाला दर्द कैसा है?” निलेश का पूछना थोड़ा अजीब लगा पर जवाब दिया, “ऐसा ही है, इलाज चल रहा है,” और बात खत्म करनी चाही।

“तुम्हारे हार्ट की क्या कंडीशन है? फिर अटैक तो नहीं पड़ा?” मैंने पूछा।

“हार्ट… डॉक्टर ने स्ट्रेन,  मेंटल स्ट्रेस कम करने को कहा है,” उसने जानकारी दी।

एक दूसरे को देखा,  देखते रहे एकटक। जैसे आपस के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रहे हों।

“दवाई तो लेते रहते हो न?” निलेश के चेहरे से नज़रें हटाईं और पूछा।

“हाँ, लेता रहता हूँ।”निलेश ने कहा।

“तब आज तुम्हारी साँस क्यों फूल रही है? बी पी की गोली समय से लेते हो ?” बरबस ही मुंह से हमदर्द लहजे में कहा।

“आज भूल गया। शायद,  कुछ इस वजह से और कुछ…” कहते-कहते वह रुक गया।

“कुछ… कुछ तनाव के कारण,” मैंने बात पूरी की।

 

वे कुछ सोचते रहे, फिर बोले, “तुम्हें 15 लाख रुपए देने हैं और 20 हज़ार रुपए महीना भी।”

“हाँ… फिर?” मैंने पूछा।

“नोएडा में फ्लैट है… तुम्हें तो पता है। मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूँ। 15 लाख रुपए फिलहाल मेरे पास नहीं है।” उसने अपने मन की बात कही।

नोएडा वाले फ्लैट की कीमत तो 30 लाख रुपए होगी?

“मुझे सिर्फ 15 लाख रुपए चाहिए...”  अपनी बात स्पष्ट की।

“बेटा बड़ा होगा,सौ खर्च होते हैं।” वे बोले।

“वो तो तुम 20 हज़ार रुपए महीना मुझे देते रहोगे,” मैं बोली।

“हाँ, ज़रूर दूँगा।”

“15 लाख अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मुझे मत देना,”  उससे कहा।

मेरी आवाज़ में पुराने संबंधों की गर्द थी।

वे मेरा चेहरा देखते रहे...

निलेश को देख रही थी और सोच रही थी, “कितना सरल स्वभाव का है इनका, जो कभी मेरे थे। कितना अच्छे हैं। मैं ही शायद कहीं समझने में…”

शायद निलेश भी यही सोच रहा था। दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? ये करती थी परवाह! कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी। कितनी संवेदना थी इसमें। मैं अपनी क्रोध के नशे में रहा। काश, जो मैं इसके जज़्बे को समझ पाता।”

हम दोनों चुप थे, बेहद चुप।

दुनिया भर की आवाज़ों से मुक्त हो कर, खामोश।

दोनों भीगी आँखों से एक दूसरे को देखते रहे।

“मुझे एक बात कहनी है, ” उसकी आवाज़ में झिझक थी।

“कहो, ” मैंने सजल आँखों से उसे देखा।

“डरता हूँ,” निलेश ने कहा।

“डरो मत। हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो ।”

“तुम बहुत याद आती रही,” वे बोले।

“तुम भी,” मैं एकदम बोली।

“मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूँ।”

“मैं भी।” तुरंत मैंने भी कहा।

दोनों की आँखें कुछ ज़्यादा ही सजल हो गई थीं।

दोनों की आवाज़ जज़्बाती और चेहरे मासूम।

“क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?,” निलेश ने पूछा।

“कौन-सा मोड़?” पूछ ही बैठी।

 

“मुझे माफ़ कर दो| मैं गलत था| सच कह रही थी तुम| मैंने कभी भी तुम्हारी इच्छाओं को नहीं समझा| मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ| तुम्हारी इच्छाओं का गला घोंटा है मैंने|” उनके इस भोलेपन ने मुझे एक पल में पिघला दिया| ख़ुद को रोक न सकी और उनकी बाँहों में समा गयी| उनकी आँखों से झरते आँसुओं से मेरा माथा गीला हो गया था।”

 

“अब हम हमेशा साथ रहेगें।  एक साथ पति-पत्नी नहीं बल्कि बहुत अच्छे दोस्त बन कर।”

“ये पेपर, ये अर्जी?”,मैंने पूछा।

“फाड़ देते हैं।” निलेश ने कहा और अपने हाथ से तलाक के कागज़ात फाड़ दिए। हम दोनों उठ खड़े हुए। एक दूसरे के हाथ में हाथ डालकर मुस्कुराए।

दोनों पक्षों के वकील हैरान-परेशान थे। दोनों पति-पत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चले गए। सबसे पहले हम दोनों मेरे घर आए। माता-पिता से आशीर्वाद लिया। आज उनके चेहरे पर एक संतुष्टि की रेखा थी। 2साल बाद मां पापा को इतना खुश देखा था। फिर हम बेटे के साथ इनके घर,  हमारे घर, जो सिर्फ और सिर्फ पति-पत्नी का था। दो दोस्तों का था।

वक्त बदल गया और हालात भी। कल भी हम थे और आज भी हम ही पर अब किसी कड़वाहट के लिए कोई जगह नहीं। ये अनोखा संबंध है। पति-पत्नी के रिश्ते से भी कुछ ज्यादा खास।

 

 


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