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Sanjay Makvana

Tragedy

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Sanjay Makvana

Tragedy

अंधकार दीप जलाते हों....?

अंधकार दीप जलाते हों....?

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भगवान अंशुमाली अपनी आखरी साँस ले रहे थे। लगता था कि कुछ ही क्षणों में अपनी जीवनलीला समेट लेंगे। उसके शोक से सारी प्रकृति भी अधमरी होकर शांत पड़ी थी। पंछी उसके वियोग में प्रलाप‌-विलाप कर रहे थे। पेड़ -पौंधे भी मौन होकर ईश्वर से उसके लीए प्रार्थना करते मालुम होते थे। सहसा मेरा ध्यान भंग हुआ और मेरी कलम रुक गई नीचे शोर हो रहा था। मानव सहज कौतूहल वृत्ति से मैंने मेरी अटारी से नीचे देखा। 

 नीचे एक औरत एक नन्हे बच्चे को मारपीट रही थी। बच्चे की चिल्लाने की आवाज सुनकर एक स्त्री सामने की झोंपड़ी से दौड़ी आ रही थी। मैं सारा मामला ताड़ गया। इस सोसाइटी के सामने ही एक भिखारिन की पर्णकुटी थी। पर वह राम की पर्णकुटी जैसी नहीं थी, ये तो ऊंचे -ऊंचे सिमेंट के जंगलों के बीच में बनी थी। लोगों के फेंके हुए फटे कपड़े और कूड़ादान में से उठाये चीथड़ों को पतली कमजोर लड़कियों से बने अस्थिपंजर पर डालकर बनाई गई थी। इस सोसाइटी की इकलौती कुटिया थी, इसीलिए हम सबकी नजर में चुभती थी।

 मैं नीचे उतरकर तमाशा देखने वाली ईश्वर की बनाई उस अनमोल प्रजाति में शामिल हो चला। जैसे जनमेदनी को देखकर नेता का उत्साह दुगुना हो जाता है, उसी तरह यह औरत बड़े मुँह से चिल्ला रही थी, और हम लोग चाव से सुन रहे थे, देखो भई जमाना कितना खराब हो गया है ! हमने समझा कि बिचारे गरीब लोग है, यह सोचकर यहाँ रहने दिया, मगर गरीब चोर होते है यह आज मालूम हुआ!  

क्या हुआ ? देखने वालों में से कोई बोला। 

 ये भिखारिन आपने बच्चे से चोरी करवाती है। आज मेरे पति दीपावली के शुभ अवसर पर पटाखे और मिठाई लाये थे। ये बदमाश सामने ही खेल रहा था, देख लिया, ड्राइंगरूम में रखी थी। वहाँ से गायब हो गई। 

 हाय! हाय...! इतना सा बच्चा चोरी करता है। भीड़ के बड़े मुख से धिक्कारे बरसने लगी। असंख्य लाल‌-लाल आँखें माँ-बेटे को घूरने लगी। उसमें से कोई बोला; “लोगों का विश्वास गरीबों पर से यूँ ही नहीं उठ गया। ये लोग अपने बच्चों को चोरी के संस्कार देते है।’’

 दूसरे महाशय तड़ाक से बोले “इसीलिए आज कोई भी गरीबों पर दया नहीं करता।”

 एक और व्यक्ति दया धर्म दिखाते हुए बोला! “हम तो इस पर दया कर कभी पैसा तो कभी खाना देते ही है, फिर भी ये हरामखोर हमारा ही बुरा करते है।’’ 

 सबका तिरस्कार‌‌-गलियाँ सहती हुई वह भिखारिन हाथ जोड़कर खड़ी थी, और उसका दुधमुंहा बच्चा उस औरत की चुंगल में फंसा था। और वह मैडम उसके गाल-बाल नोचती हुई धमकाती हुई बोल रही थी, क्यों बदमाश पटाखे और मिठाई कहा छुपाये है?

वह बेचारा चीत्कार करता हुआ अपने को छुड़ा कर माँ की गोद में छुप गया। छोटी आंखों से आँसू की बड़ी धारा नाक से बहती हुई धारा में मिलकर मुँह में जा रही थी, और उसे वह अपने हाथों से रोकने का व्यर्थ प्रयास कर रहा था। मेल से छने मुँह पर रुदन की हिचकियाँ रुकती नहीं थी। उसी वजह से व्युत्कर्मिक रुप से कुछ बोल रहा था, पर उसकी भाषा कौन समझ सकता था !

  उसकी माँ ने अपने से दूर करके बच्चे को झकझोर ने लगी। बोल, मिठाई-पटाखे तूने लिये है? बता ! 

  मार की वजह से फुले हुए गालों को दिखाते हुए वह औरत बोली, उसे क्या पूछती है? उसी ने लिए है, देखो न मिठाई खा कर गालों में चरबी चढ़ गई है !

 इस वाक्य से उस माँ की आत्मा जल गई, उसने कंपते हुए हाथों से शायद पहली बार अपने बच्चे के कपोल पर तमाचे लगा दिए। बोल, पटाखे कहाँ रख आया? बता मिठाई तुमने खाई?

 बच्चे के गले से जो अस्पष्ट भाषा शब्द निकल रहे थे, वो भी रुदन में अद्रश्य हो गये। अब तो वहाँ से केवल अ..आ.. कंठ्यवर्ण ही निकल रहे थे।

  वह ऐसे नहीं बताएगा लाओ मेरे पास, कहती हुई वो औरत बच्चे की तरफ लपकी। बच्चे की माँ सहम गई! पर वह क्या करती? वो न मारे इसीलिए खुद कलेजा मजबूत करके अपने बच्चे को पीटने लगी, बताता है कि नहीं मिठाई फटाके कहा छुपाए?

  मार खाते बच्चे पर सब आलोचना कर रहे थे। बच्चा बेचारा अधमुआ सा हो गया, पर कोई कुछ बोलता न था। 

  अब मुझसे न रहा गया। मेरी हीन भावना ने उसे छूने से तो रोक लिया पर बोले बीना नहीं रहा गया। मैं बीच में आकर बोला, अब रहने दीजिए बच्चे को मार डालेंगे क्या !? बच्चों का मन चंचल होता है। उसे जो चीज पसंद आती है उसे वह ले लेते है, चाहे वह चोर का बच्चा हो या राजा का। बच्चों के स्वभाव ऐसा ही होते है। अब जाने भी दो।

 वह औरत मेरी तरफ घूरी , जब ये आपके घर चोरी करेगा तब यह ज्ञान की बाते अपने कानों को सुनाना।

 मेरी वजह से उस भिखारिन को बोलने का मौका मील गया, “माफ करो बहनजी, मैं आपकी मिठाई और पटाखे के पैसे चुका दूंगी।’’ 

 वो औरत तुनुक कर बोली, मैं तुझ जैसी भिखारिन से पैसे लुंगी। बड़ी आई पैसेवाली, किसी ओर के चुराए पैसे हमें पचेंगे!

 सोसाइटी के लोग जमा हो रहे थे। उनके लिए ऐसे वाकयात त्यौहार से कम नहीं होते। ऐसा नहीं कि सब लोग निष्ठुर थे, कुछ लोग दयालु भी थे, जिसको ऐसे लोगों के प्रति हमदर्दी होती है पर वह दिल में ही रहती है, और ज्यादातर लोग संशयात्मक होते है इसीलिए चुप ही रहते है, और उस औरत को देखकर किसी की बोलने की हिम्मत भी तो नहीं होती थी ! 

 

जब भीड़ खली हो गई तब जाके वह औरत अंत की ओर मुड़ी, ऐसे भिखारियों को हमारी सोसाइटी में रहने ही नहीं देना चाहिये। इन लोगों के कर्मों पर तो भगवान भी कोपाइमान है। ऐसे पापी को वो दंड देते ही है, इसीलिए तो नरक की जिंदगी दी है ! अब की बार इस सोसाइटी में कहीं भी चोरी हुई तो तुम्हारी खैर नहीं, यहाँ से निकाल देंगे: समझी ! दीवाली का त्यौहार बरबाद कर दिया डायन ने.... ऐसी बड़बड़ाहट करती हुई वह चली गई।

 सबको उस औरत की बात सही लग रही थी, क्योंकि उसने ईश्वर को साक्षी बना लिया था। इसलिए ज्यादातर लोग इस भिखारिन को धिक्कारते हुए जा रहे थे, और बच्चे की माँ हाथ जोड़े खड़ी थी, मानो उसे आज क्षमा की भी भीख मांगनी पड़ रही हो ! सब चले गये तब वह भी बच्चे को वहाँ रोता हुआ छोड़कर चली गई। आखिर मैं भी मन में इस घटना की आलोचना करता हुआ मेरी बाल्कनी में जाकर हाथ में कलम लेकर लिखने को तैयार हुआ। पर मेरी नजर उस बच्चे पर पड़ी थी। वह अब भी हिचकियां लेता हुआ रो रहा था।

 

रजनी आकाश पर काला रंग पोतने लगी तभी शहर ने दीपावली उत्सव मनाना शुरु कर दिया। पटाखों की कान के परदे फाड़ देने वाली आवाजें आने लगी थी, लगता था की शहर पर बमबारी हो रही हो ! गगन में आतिशबाजियाँ होने लगी। घर-घर दीपक जलाये जा रहे थे। सारा नगर आनंदोत्सव मना रहा था। पर उस झोपड़ी में अंधेरा ही था। उस बालक की माँ अपने हाथों में मुंह छिपाकर रो रही थी। उसे दुःख था कि उसका बच्चा चोरी करना सीख गया था। उसे कल की वह घटना याद आ गई: 

  भोजन करते हुए कह रहा था, माँ मुझे पटाखे मिठाई ले दोगी न? 

  उसे गोद में लेकर एक कौर खिलाते हुए अनजान बनकर बोली, क्यों?

  तुम्हें नहीं पता ! कल दीवाली है। सब नये कपड़े पहनेंगे। मिठाइयाँ खायेंगे, और ढेर सारे पटाखे फोड़ेंगे ।

  कुछ उदास होकर उसकी माँ बोली, बेटा ये त्यौहार हमारे लिए नहीं है। ये बड़े लोगों का त्यौहार है।

  क्यों नहीं है? सामने वाले सब लड़के मुझे चिड़ाते थे कि तुम क्या पटाखे फोड़ोगे ! तुम तो भिखारी हो। जब हम मिठाई खा रहे होंगे तब आना जूठन देंगे। मैं सब को दिखा दूंगा कि हमारे पास भी पैसे है। सबसे ज्यादा पटाखे फोडूंगा। उसके सामने ही मिठाई खाऊंगा। किसी को एक दाना नहीं दूंगा ।

  उसकी माँ चुप थी। 

  माँ चुप क्यों हो, पटाखे और मिठाई ले दोगी? मुझे नए कपड़े नहीं चाहिए, बोलो माँ ला दोगी? 

  कुछ सोचकर वह कठोर स्वर में बोली, मेरा सिर मत खा, बताया न ये त्यौहार हमारे लिए नहीं है।

  उस दिन रुठ कर-उठकर खाये बीना ही सो गया था। सब मेरा ही दोष है। मैंने उसे मिठाई- पटाखे ले दिये होते तो क्या वह चोरी करता? यही वजह है कि गरीबों के बच्चों को चोरी का ख्याल तुरंत आता है। मैं उसे अच्छे संस्कार दूंगी, और उसकी हर ख्वाहिश पूरी करूंगी, ताकि वह चोरी करना न सीखे। 

  वो अपने आप को दोष देती रही: क्यों मैंने उसे कुछ नहीं ले दिया! त्यौहार तो बच्चों के लिए ही बनाए है। कुछ पैसे चले जाने से क्या होता? दो‌-तीन दिन मुश्किल से गुजरते ओर क्या ! और इतिहास साक्षी है, गरीबों के घर में लक्ष्मी जी की आगतास्वागता नहीं होती इसलिए उनके घर में कभी नहीं टिकती ! मैंने थोड़ी सी लक्ष्मी मेरी झोपड़ी में बांध रखी है इसीलिए ऐसा हुआ। उस औरत ने सही कहा है। पिछले जनम में हमने बहुत पाप किए होगे, तभी तो इस जनम में ऐसी दुर्दशा हुई। इस अवतार में कोई बुरा कर्म नहीं करना है, ताकि अगला जनम महलों में मिले , इसीलिए उस स्त्री के पैसे दे देने चाहिए, भले ही उसने मना किया हो। अगर वह लेने से मना करेगी तो उसके सामने फेंक आऊंगी, ताकि मेरे बच्चे को फिर से न मारे और चोर न बोले।

 वह उठकर कहीं पे छुपाए हुए पैसे निकालकर अपनी रोती हुई आंखें साफ करके सामनेवाली उस औरत के घर की ओर चली। 

 वह उसे बाहर ही मिल लेना चाहती थी, पर वह आंगन में दीपक जलाकर अंदर चली गई थी। उस स्त्री ने हल्के कदमों से उनके आंगन में प्रवेश किया, मानो वह भी चोर हो। तभी मेरी निगाह उस पर पड़ी। मैंने सोचा ये भी चोरी करने जा रही है या फिर बदला लेने। मैंने उसे रंगे हाथ पकड़ने की सोचकर झटपट से नीचे उतरकर उसके पीछे चला। वह उसके दरवाजे के पास रुक गई थी। अपने आपको छुपाती हुई अंदर की आवाज सुन रही थी। मैं भी दीवार की आड़ में छुप गया। अंदर से आवाजें आ रही थी, आज क्या हुआ था?

 पत्निः कुछ नहीं, उस भिखारिन के बच्चे ने हमारे मिठाई‌-पटाखे चुरा लिए ।

 पतिः क्या ! पर मिठाई‌-पटाखे तो अलमारी में है। तुम्हें बताया तो था।

 पत्निः मैं जानती हूं पर ये भिखारिन यहाँ रहें वो मुझे पसंद नहीं, वो भी हमारे घर के सामने ! यह मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिए मैंने उस पर चोरी का आरोप लगा दिया।

 पतिः तुमने अच्छा किया, इसे परेशान करे ताकि यहाँ से चले जाये। एक बार मेरे दोस्त ने भी कहा था कि आपके घर के सामने ये लोग ! ताज्जुब है आप यहाँ रहते है ! 

 पत्निः इनकी वजह से सोसाइटी के लोग भी हमें ओछी नजरों से देखते है। 

 ये सुनकर उस गरीब स्त्री के मुंह से आह ! तक न निकली। उस माँ के हृदय की दशा का वर्णन मेरी कलम नहीं लीख सकी ! उसके हाथ से गिरते पैसे मैंने देखे। मुझे सत्य का पुर्णज्ञान प्राप्त हुआ। उसने अपने बच्चे की तरफ तेजी से दौड़ लगाई। वो अभी भी वही पर बैठा था। आकाश में जगमगाती रोशनीयाँ देख रहा था। रंगबिरंगी आतिशबाजियाँ हो रही थी। इस कुतूहल से वह रोना भूल गया था। वह कुछ कदम दूर अपने बच्चे के पीछे रुक गई और अपने बच्चे को निहारने लगी। पछतावे के आंसुओं को रोकती हुई वह हल्के कदमों से अपने लाल के पास जाकर बैठकर सिर पर ममता का हाथ रखते हुए बोली, बेटा घर चलो। 

 वह माँ के प्यार भरे स्वर को पहचान गया। गालों पर ठहरे हुए आखिरी अश्रुओं को पोंछते हुए बोला, माँ, मैंने मिठाई-पटाके नहीं चुराए।

 अब वह आंसुओं को रोक न सकी। उसे अपने कलेजे से लगाकर रोती हुई बोली, “मैं जानती हूँ बेटा, ये त्यौहार तो ठीक, अब तो ये दुनिया भी हमारी नहीं लगती !”

 अपने बच्चे को गोद में उठाकर उसे चूमती हुई, रोती हुई, दुनिया को कोसती हुई अपनी अंधेरी झोंपड़ी में अदृश्य हो गई। आकाश की जगमगाती रोशनी की एक भी किरण उस झोंपड़ी पर नहीं पड़ती थी, मानो अमावस्या की काली रात वही छुपी बैठी हो।

 मैं वही खड़ा ये सब देखता रहा। मेरी अंतरात्मा से आवाज आई, क्या ! तुम इंसान हो...? और मैं उसका जवाब नहीं दे सका।

                 

            


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