अहसास
अहसास
उस दिन मैं बहुत रोई थी, कोई साथी नहीं था साथ, सबने ही जैसे दुश्मनी निभाई थी।
जी हाँ यह कहानी है उन दिनों की जब कोई अपने लड़कपन में यही सोचता है कि ये जहान उसका दुश्मन है।
उस दिन न खाना खाने का मन था, न ही किसी से बात करने का , न किसी की ओर देखने का और न ही अपनी परेशानी किसी से साझा करने का। परेशानी, क्योंकि समझ ही नहीं आ रही थी कि है क्या, है क्या जो मुझे रुला रहा है , है क्या जो मुझे सता रहा है? फिर अचानक माँ की आवाज ने जैसे जगा दिया उन सब उलझनों से जिन्होनें आँखे सुजा दी थीं। किसी से बात मत करो, लडकियों को ज्यादा बातें नहीं करनी चाहिए, लडकियों को घर से बाहर नहीं जाना चाहिए, जोर से हँसना नहीं चाहिए, समय पर सो जाना चाहिए आदि आदि।
बस तभी से समझ में आया कि है मुझमें वह एक लेखक है जो कहता है उतार अपने दर्द को सफ़ेद चादर पर। कहीं न कहीं उन सीखों से परेशान हो कर मैंने अपने आप को बहुत समझाया , कभी सताया और कभी दिल को भी बहुत रुलाया। उस दिन से सफ़र शुरु हुआ मेरे लिखने का, डायरी में लिखकर शायरी को बन्द कर दिया, अपने अरमानों को और उन से जुडी हर बात को जैसे कैद कर दिया। नहीं जानती थी क्या सही है और क्या गलत इसलिए निकालती रही समय अपने दर्द को सजोंने का, पिरोने का। मैंने कभी नहीं सोचा था कि वह दर्द मुझे लिखने की प्रेरणा देने वाला था मगर आज किसी के इस प्रश्न ने मिला दिया मुझे अपने प्रेरणा स्त्रोत से। कारण कुछ भी हो जब लिखने के लिए उम्मीद मिले तो लिख लेना चाहिए अपने अन्तर्द्वन्द्व से कागज के कोरे पन को जैसे होली के रंग में सराबोर कर देना चाहिए। धन्यवाद करुँ जननी का उस दर्द का या प्रश्नकर्ता का ? जो भी हो आज मैं उस दर्द के कारण शब्दों की दीपावली मना सकी हूँ।