अच्छे दिनों की सापेक्षता
अच्छे दिनों की सापेक्षता
किसी भी बात, वस्तु या परिस्थिति का अच्छा या बुरा होना सापेक्ष होता है। जो चीज किसी के लिये अच्छी है, वही किसी और के लिये बुरी भी हो सकती है। यही बात अच्छे दिनों पर भी लागू होती है। इन दिनों यह जुमला ख़ूब चल रहा है कि अच्छे दिन आने वाले हैं। भई जब से चुनाव हुऐ हैं, किसी न किसी के तो अच्छे दिन आ ही गऐ हैं। और किसी के बुरे दिन भी साथ ही चले आये हैं। इसलिये मेरा मानना है कि अच्छा या बुरा सब सापेक्ष ही होता है। अब देखिये ना, महँगाई का रोना भी एक स्थायी विलाप होता है। जो विपक्ष में है उसे यह विलाप पूरे ज़ोर से करना है और जो पक्ष में है वह कहता है कि पिछले दिनों की तुलना में महँगाई कम बढ़ी है, इसलिऐ इतने दारुण विलाप की आवश्यकता नहीं है। हुआ ना। बात वही है पर एक के लिये अच्छी है तो दूसरे को फूटी आँख नहीं भा रही। अब महँगाई बढ़ेगी तभी तो जमाख़ोरों के अच्छे दिन आऐंगे। हर सरकार पूरी गंभीरता से कहती है कि उसके पास कोई जादुई छड़ी नहीं है कि ज़रा घुमाई कि सभी के अच्छे दिन शुरू!
केवल अच्छे दिनों ही बात करेंगे तो यह ठीक नहीं होगा। बुरे दिनों की बलिहारी देखिये कि जो पलक झपकते किसी को कुछ भी बना सकते थे, अब न अपने लिये ना ही अपनों के लिये छोटा मोटा काम भी नहीं करवा पा रहे हैं। कल तक जो एक दृष्टि पाने को लालायित रहते थे, आज आँखें दिखा रहे हैं। पर फिर भी खुलकर कुछ नहीं कह पा रहे हैं। केवल यही कि अमुक जी तो अच्छे हैं बस संगत ज़रा ख़राब हो गई थी। तो भैये संगत से ही आदमी अच्छा या बुरा होता है। अच्छी संगत करने से किसने रोका है। जब जागे तभी सबेरा।
सूरत ऐ हाल यह हो चला है कि मंत्री बने थे तब सोचा था कि मज़े करेंगे। लेकिन अठारह बीस घंटे काम करके भी चिंता से दुबले हुऐ जा रहे हैं। बीवी अलग कान खींच रही होगी। क्योंकि उसके तो बुरे दिन ही आ गऐ हैं! महामहिम रिपोर्ट कार्ड देखते हैं सो अलग। क्या ख़ाक अच्छे दिन आये हैं। हर ओहदेदार बेहाल हो चला है, ऐसे अच्छे दिनों से तो बुरे दिन ही भले थे। अब घर में बिजली चली जाऐ या सड़क पर गड्ढा हो जाऐ तब भी विनोद में ही सही अच्छे दिनों ज़िक्र लाजमी हो चला है। जैसे यह सब पहली बार हुआ हो। शादी के बाद कुछ समय तक बीवी साथ हो तो दिन अच्छे लगते हैं, लेकिन जब समय बदलता है तो यह विचार भी बदल जाता है! बीवी का मायके जाने का प्रस्ताव अच्छे दिनों की आहट सा सुक़ून भरा हो जाता है।
मैंने अंतिम व्यक्ति कहे जाने वाले को टटोला।
''आपको अच्छे दिनों की कुछ जानकारी है? आ गऐ हैं या आने वाले हैं?''
''अब साब आप तो पढ़े लिखे हो आप ही बताओ। हमारा क्या है हम तो ठहरे निपट निरक्षर हमारा क्या अच्छा और क्या बुरा। जिसके पास कुछ नहीं हो उसे कुछ भी मिल तो समझो अच्छे दिन। जिस दिन भरपेट खाना मिल जाऐ वही सबसे अच्छा दिन है। अच्छा आप बताओ आप तक अच्छे दिन आ गऐ क्या?''
वह पता नहीं कब से भरा बैठा था, जरा सा छेड़ते ही प्रश्नों की एल एम जी पूरी मुझ ही पर दाग़ दी। मुझे ऐसे प्रतिप्रश्न की अपेक्षा नहीं थी मैं सकपका गया। थोड़ा सँभला फिर कुछ सोचते हुऐ उससे कहा- ''बस आने ही वाले हैं। राजधानी से चल दिये हैं तो पहुँचेंगे ही।''
''राजधानी में होने वाली बातों पर आप भी भरोसा करते हो। वह तो हम जैसों को शोभा देती है। अब हमारी तो मज़बूरी है पर आप के सामने क्या मज़बूरी है।'' उसकी पीड़ा फिर फूट पड़ी।
''ऐसा नहीं कहते मित्र।'' मैंने उसे समझाने की कोशिश की।
''क्यों नहीं कहते? सुना है देश में सरकार की कमियाँ बताने वाली व्यवस्था है। कोई भी बता सकता है। जब वोट सब दे सकते हैं तो ऐसा बताने में क्या हर्ज़ है। बाप दादों के ज़माने से सुन रहा हूँ। यह होने वाला है वह होने वाला है। जब सरकार ही यह मानती है कि जो राजधानी से वह हमारे लिये भेजती है, उसका थोड़ा सा ही हम तक पहुँचता है। बाक़ी कपूर की तरह कहाँ उड़ जाता है कोई जानता नहीं है क्या? पूरे अच्छे दिन राजधानी से चलेंगे तो हमारे तक कुछ अच्छे पल ही पहुँचेंगे ना साब।'' वह बोला। मुझे लगा कि अंतिम व्यक्ति अंतिम भले ही हो। अच्छे कुछ पल नहीं पूरे अच्छे दिन ही उस तक पहुँचने चाहिये। नहीं क्या?
