आठवाँ फेरा
आठवाँ फेरा
"मंगला ! सो गई क्या ?"
"नहीं जी, कहो कुछ चाहिए क्या?"
"नहीं, बस तुझसे बात करने को जी चाह रहा था।"
"आपकी तबियत ठीक नहीं है, आप तो सोने की कोशिश करो।"
" नहीं, आज कहने दे अपनी बात मुझे, पता नहीं फिर मौका मिले न मिले। हमने जीवन भर एक-दूसरे का साथ और सुख-दुःख मिलकर निभाये। तूने मेरी कभी कोई बात नहीं काटी। हमेशा मेरा मान रखा लेकिन मैं तेरा गुनहगार हूँ और तेरी बात न मानने का खामियाजा आज भुगत रहा हूँ। तूने कितना समझाया, ये पान, तम्बाकू, गुटखा मत खाओ। ये भी एक तरह का नशा ही है और नशा कोई भी हो बर्बाद करके ही छोड़ता है। मुँह के कैंसर की जड़ तो यही है। जान तक के लाले पड़ जाते हैं। एक इंसान के साथ पूरा परिवार तबाह हो जाता है।मेरी अक्ल पर तो पत्थर पड़ गये थे न ! कैसे समझ आता ? मुझे तो इसे खाने में अपूर्व आनन्द मिलता था। मैं तो इतना आदी हो गया कि तेरी कसम खाकर भी तुझसे छिपकर ये सब खाता रहा। हाय ! विधाता, चुटकी भर सद्बुद्धि दे देता तो ये दिन न देखना पड़ता।"
"अजी, छोड़ो भी इन बातों को, क्या फायदा ये सब याद करके, कष्ट ही होगा।"
मंगला का हाथ अपने हाथ में लेकर....
"अच्छा सुन, मेरी एक आखिरी इच्छा पूरी करेगी ? वचन दे मुझे।"
दुःखी होकर...
"तुम कहो तो, तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं करूँगी तो किसकी करूँगी ? मेरा और कौन बैठा है इस दुनिया में।"
"तो सुन, अग्नि के सात फेरे लेकर मैं तुझे तेरे घर से विदा कराकर लाया था। तू भी आठवाँ फेरा लेकर उसी अग्नि से मुझे मेरे घर से खुशी-खुशी विदा करना।"
"ये कैसी बातें कर रहे हो जी, कुछ नहीं होगा आपको।"
"पहले बता, इतना करेगी न ? अगर तुझे कुछ हो जाता तो तेरा कारज मैं करता न, फिर तू क्यों नहीं ? आखिर अर्द्धांगिनी है तू मेरी। जीवन से जुड़े हर पहलू की आधी हिस्सेदार।"
"ऐसी बातें मत करो जी, कलेजा हलकान हो रहा है।"
"देख ये तो तुझे करना ही होगा।”
"पर......घर,परिवार,गाँव, समाज सब........?
कौन करने देगा मुझे ये कारज ?"
"वो सब तू जाने, मेरा आखिरी मंगल तेरे हाथों ही होगा मंगला।"
और बातें करते-करते उसका हाथ मंगला के हाथों में ठंडा पड़ गया।
“इनका अन्तिम संस्कार तो मैं ही करूँगी।”
सभ्य शालीन बहू को इस तरह बोलते सुन सब सकते में थे लेकिन निर्लिप्त निर्विकार सी सबके विरोध को दरकिनार कर अपने निर्णय पर अडिग पति को कन्धा दे चल दी मंगला, पति का आखिरी मंगल करने।।