आसमानी हाथी

आसमानी हाथी

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अन्द्रैका का कोई दोस्त नहीं था। पापा समन्दर पे चले गए, सफ़र पे। मम्मा के पास तो टाईम ही नहीं है: अकेली रहती है अन्द्रैका के साथ खाड़ी के किनारे पर। चारों ओर है बस पानी, और रेत, और झाड़ियाँ।

उकता जाता है अन्द्रैका।

मम्मा कहती: वहाँ, खाड़ी के उस किनारे पर रहते हैं मेंढ़कों के हरे-हरे पिल्ले। कूदते हैं एक टीले से दूसरे पर, पानी में छप-छप करते हैं, पलटियाँ खाते हैं। अन्द्रैका ने ज़िद पकड़ ली: मेंढ़कों के पिल्ले लाओ, लाओ !

  “मेंढ़क के पिल्ले चाहिए !”

 “ऐख, कैसा ज़िद्दी है तू !” मम्मा ने कहा। “थोड़ा ठहर, भट्टी गरम हो जाए, फिर जाऊँगी, तेरे लिए दोस्त लाऊँगी।”

 और सच में उसने जल्दी-जल्दी सारे काम निपटा लिए और ड्योढ़ी में आई। आसमान की ओर देखा: कहीं बारिश तो नहीं होगी !

छोटा बच्चा डर जाता है।

नहीं, कहाँ की बारिश ! धूप निकली है। उमस भरी गर्मी है। आसमान नीला-नीला, काफ़ी ऊपर सफ़ेद-सफ़ेद बादल हैं। बस एक छोटा-सा बादल थोड़ा काला-सा है, वो भी उस किनारे पर। छोटा सा, बहुत दूर।

’हवा नहीं चल रही है,’ मम्मा ने सोचा। ‘इतनी जल्दी यहाँ तक नहीं आएगा। वो किनारा नज़दीक ही तो है। फ़ौरन लौट आऊँगी।’

चप्पू उठाए, चेन खड़खड़ाई।

अन्द्रैका से बोली:

 “यहीं बैठ, इधर-उधर भागना नहीं ! अगर देखा कि भाग गया है, तो मेंढ़कों के सारे पिल्ले वापस पानी में फेंक दूँगी।”

उसने गेट बन्द किया: बच्चा कम्पाऊण्ड से कहीं नहीं जा सकता। नाव को धकेला, चप्पू चलाने लगी – समतल पानी पर पंछी की तरह नाव जाने लगी।

अन्द्रैका की मम्मा जवान है, फुर्तीली है।

अन्द्रैका घर में अकेला रह गया। ड्योढ़ी में बैठा रहा, काली नाव को नीले-नीले पानी में भागते हुए देखता रहा।

जल्दी ही नाव कलहँस जितनी हो गई, फिर बत्तख़ जितनी।

इस तरह बैठकर इंतज़ार करना बड़ा ‘बोरिंग’ है।

अन्द्रैका बादलों को देखने लगा।

आसमान में कई सारे बादल हैं: एक – ‘बन’ जैसा है, दूसरा – जहाज़ जैसा। जहाज़ फ़ैलने लगा, फ़ैलने लगा - और तौलिया बन गया।

नीली-नीली खाड़ी के ऊपर छितरे बादल हैं, समुद्री चिड़ियों के झुण्ड जैसे। और नीचे, उस किनारे के ऊपर है – एक छोटा-सा काला बादल। बिल्कुल तस्वीरों वाली किताब के छोटे से हाथी जैसा: सूँड भी है, और पूँछ भी है।

मज़ेदार हाथी है: ऊपर की ओर चढ़ रहा है, आँखों के सामने ही बढ़ रहा है।

किनारे वाले ऊँचे जंगल ने मम्मा की आँखों से काले बादल को छुपा दिया। नाव का सामने वाला हिस्सा कीचड़ में घुस गया। किनारे पर ह्ल्की लहर मचल रही थी।

मम्मा उछल कर बाहर आई, नाव को बाहर किनारे पे घसीटा। मेंढ़कों के लिए एक डिब्बा लिया और जंगल में गई। जंगल में है – दलदल। नन्हे-नन्हे मेंढक टीलों पे बैठे हैं। बिल्कुल छोटे-छोटे, बेहद दिलचस्प। वाक़ई में कल ही तो ये डिम्भों की तरह तैर रहे थे: हरेक की एक छोटी-सी पूँछ थी।

 ‘प्ल्युख ! प्लुख ! शू ! शू ! शू !’ – सब पानी में कूद गए। अब पकड़ लो उन्हें !

मम्मा काले बादल के बारे में भूल गई। एक टीले से दूसरे पर उछल रही है, मेंढ़कों का पीछा कर रही है। एक मेंढक पकड़ती है, डिब्बे में डालती है – और दूसरे के पीछे भागती है।

उसने ध्यान ही नहीं दिया कि चारों ओर एकदम ख़ामोशी छा गई है। खाड़ी के ऊपर अबाबीलें नीचे-नीचे उड़कर ग़ायब हो गईं। जंगल में पंछियों ने गाना बन्द कर दिया। एक ठण्डी, नम छाया तेज़ी से फैलने लगी। और जब मम्मा ने सिर ऊपर उठाया, तो देखा कि उसके सिर के ठीक ऊपर काला आसमान लटक रहा है।

अन्द्रैका देख रहा था कि कैसे छोटा-सा हाथी बढ़कर बड़ा हाथी बन गया है।

बड़े हाथी ने अपनी सूण्ड नीचे की, उसे गोल घुमाया – और फिर से अपने भीतर समेट लिया।

फिर न जाने कहाँ से उसकी तीन पतली-पतली सूण्डें निकल आईं।

वे चिंघाड़ रही थीं, चिंघाड़ रही थीं – और अचानक उन्होंने मिलकर एक मोटी, लम्बी सूण्ड बना लीं।

सूण्ड नीचे की ओर बढ़ने लगी। वो फैलती गई, फैलती गई और ज़मीन तक पहुँच गई।

तब हाथी चल पड़ा। उसके भारी-भरकम काले पैर भयानक तरह से चल रहे थे। उनके नीचे की ज़मीन गरज रही थी। विशालकाय आसमानी हाथी खाड़ी से होकर सीधे अन्द्रैका की ओर आ रहा था।            

मम्मा ने देखा कि काले आसमान से उसके और खाड़ी के बीच एक गोल खंभा उतर गया है।

उससे मिलने के लिए दलदल से एक वैसा ही खम्भा उठकर खड़ा हो गया।

बवण्डर ने उसे झपट लिया और स्क्रू की तरह घुमा-घुमाकर बादल बना दिया।

बादल गरजते, कड़कते हुए आसमान पे चला गया।

मम्मा चीख़ पड़ी और नाव की ओर भागी। बवण्डर उसके पैर उखाड़ रहा था, ज़मीन की ओर दबा रहा था और कस के दबोच रहा था।

वो उछल नहीं पा रही थी: हवा मोटे रबड़ की तरह सख़्त और मज़बूत हो गई थी।

अपने हाथों से छोटे-छोटे टीलों को पकड़ते हुए मम्मा रेंगने लगी।

जिस डिब्बे में उसने मेंढ़क रखे थे वो उसकी पीठ पर बेरहमी से वार कर रहा था। उसने यह भी देखा कि ज़मीन से कुछ काले-काले धब्बे तेज़ी से आसमान की ओर बढ़े। फिर मूसलाधार बारिश एक दीवार की तरह उसकी आँखों के सामने खड़ी हो गई। पूरी हवा गरज रही थी, और ऐसा अंधेरा हो गया, जैसे तलघर में होता है।

उसने आँखें भींच लीं और अन्दाज़ से रेंगती रही: अंधेरे में वह जैसे खो गई, नाव कहाँ है, खाड़ी कहाँ है, अन्द्रैका कहाँ है – उसे कुछ भी पता नहीं था।

और जब गड़गड़ाहट अचानक रुक गई, तो बस इतना ही सोच पाई: ‘कानों के परदे फट गए !’ – और उसने आँखें खोलीं।

उजाला हो गया। बारिश रुक गई थी।

काला बादल जल्दी-जल्दी दूसरे किनारे की ओर जा रहा था।

नाव औंधे मुँह पड़ी थी।

मम्मा भागी, उसे सीधा किया, लहरों में धकेला और पूरी ताक़त से चप्पू चलाने लगी।

विशालकाय आसमानी हाथी चिंघाड़ रहा था और सीधा अन्द्रैका की ओर बढ़ रहा था। वो बढ़ते हुए एक पहाड़ में बदल गया, उसने आधे आसमान को ढाँक लिया, सूरज को निगल लिया। अब ना तो उसके पैर दिखाई दे रहे थे, ना ही पूँछ – सिर्फ मोटी सूँड ही घूम रही थी।

उसकी चिंघाड़ निकट आ रही थी। रेत पर काली छाया भाग रही थी।

अचानक ड्योढ़ी के नीचे सूखी रेत गोल-गोल घूमकर खंभा बन गई और बुरी तरह अन्द्रैका के चेहरे पर चुभने लगी।

अन्द्रैका उछल पड़ा:

 “मम्मा !।”

उसी समय बवण्डर ने उसे पकड़ लिया, ड्योढ़ी के ऊपर ऊँचे उठा लिया, गोल-गोल घुमाते हुए हवा में ले जाने लगा।          

बारिश की झड़ी लग गई – और उसके साथ ही दलदली कीचड़ के गोले, मछलियाँ, मेंढ़क ज़मीन पर बिखरने लगे।

मम्मा पूरी ताक़त से चप्पुओं से चिपकी थी। नाव ऊबड़-खाबड़ लहरों पर उछल रही थी।

आख़िरकार – किनारा !

बड़ा भयानक नज़ारा था: घर की छत, खिड़कियाँ, दरवाज़े उड़ गए थे। बागड़ गिरी पड़ी थी। पेड़ बीच में से टूट गया था, उसका ऊपरी सिरा ज़मीन पर लटक रहा था।

मम्मा घर की ओर भागी, ज़ोर-ज़ोर से अन्द्रैका को आवाज़ देने लगी। पैरों के नीचे रेत पर बिखरे थे कीचड़ के गोले, सड़ी हुई मछलियाँ और टहनियाँ।

किसी ने उसे जवाब नहीं दिया।

मम्मा घर के भीतर भागी। अन्द्रैका नहीं था।

बाहर बगीचे में भागी – बगीचे में भी नहीं था।

अब हवा ख़ामोश हो गई थी, नीले आसमान में फिर से सूरज चमकने लगा था। सिर्फ दूर, कुछ गड़गड़ाते हुए, छोटा सा काला बादल चला जा रहा था।

 “मेरे अन्द्रैका को उड़ा ले गया !” – मम्मा चीखी और बादल के पीछे लपकी।

घर के पीछे रेत थी। आगे कुछ झाड़ियाँ थीं। वे ड्रेस में उलझ रही हैं, भागने में बाधा डाल रही हैं।

मम्मा की ताक़त ख़त्म हो गई, वह धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। और अचानक वो रुक गई: उसके सामने झाड़ी पे अन्द्रैका की कमीज़ का टुकड़ा लटक रहा था।

लपकी आगे की ओर। चीख़ने लगी, हाथ नचाने लगी: अन्द्रैका का दुबला-पतला शरीर, खुरचा हुआ, और बिल्कुल नंगा, झाड़ी के पास ज़मीन पर पड़ा था।

मम्मा ने उसे हाथों में उठाकर सीने से लगा लिया। अन्द्रैका ने आँखें खोलीं और ज़ोर से रोने लगा।

 “हाथी,” हिचकियाँ लेते हुए अन्द्रैका ने पूछा, “भाग गया?”

 “भाग गया, भाग गया !” मम्मा ने उसे शांत किया, जल्दी-जल्दी उसके साथ घर की ओर जाने लगी।

आँसुओं के बीच से अन्द्रैका ने टूटा हुआ पेड़ देखा, गिरी हुई बागड़ देखी, बिना छत का घर देखा।

चारों ओर की हर चीज़ तहस-नहस हो चुकी थी, टूट-फूट गई थी। सिर्फ पैरों के पास रेत पर एक छोटा सा हरा-हरा मेंढक का पिल्ला फुदक रहा था।

 “देख, मेरे बच्चे, मेंढ़क का पिल्ला ! ओह, कितना मज़ेदार है: पूँछ वाला ! इसे उस किनारे से हवा उठाकर लाई है, तेरे लिए।”

अन्द्रैका ने देखा, नन्हे-नन्हे हाथों से अपनी आँखें पोंछीं।

मम्मा ने उसे डरे हुए मेंढ़क के पिल्ले के सामने गोदी से उतारा।

अन्द्रैका ने आख़िरी बार हिचकी ली और बड़ी शान से कहा:

”नमत्ते, दोत्त !”


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