आक्रोश

आक्रोश

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बात कुछ समय पहले की है सिहोर सरांय के ज्ञानदेव गौड़ शिक्षित और नीतिज्ञ पुरुष थे। उनकी पत्‍नी ज्ञानवती भी बहुत ही उज्‍ज्‍वल चरित्र की दयालु महिला थीं। संतान के नाम पर ज्ञानदेव के दो बेटे थे। उनके बड़े पुत्र का नाम निर्मलचंद और छोटे का देवांगन था। आपस में उनमें गजब का मेलजोल और अपनापन था। दोनों भाइयों के भी केवल एक-एक ही पुत्र थे। निर्मलचंद पति-पत्‍नी बहुत ही कृपण किस्‍म के इंसान थे। उनके बेटे का नाम शिव मंगल था। जबकि देवांगन गौड़ बचपन से ही खर्चीले स्‍वभाव के थे उनके इकलौते बेटे का नाम मंगर था।

वैसे निर्मलचंद और देवांगन में तो आरंभ से ही खूब पटती थी लेकिन, शिव मंगल और मंगर में कभी न पटी। शिव मंगल को अपने बाप-दादों की दौलत वसीयत में मिल जाने से धन की लालसा न थी। उसके पास चाँदी के सिक्‍के और बर्तन तो थे ही कई पीढ़ियों को खाने के लिए अथाह दौलत भी थी मगर, मंगर को हरदम दौलत पाने की ही चिंता लगी रहती थी। सच कहिए तो मंगर बहुत ही लालची इंसान था।

मंगर की पत्‍नी भावना भी उसी के नक्‍शे कदम पर चलती थी। निर्धन मंगर, दौलतमंद शिव मंगल को हमेशा अपना शत्रु ही समझता था। उसे चचेरा भाई कदापि न मानता था। यह सच है कि मनुष्‍य अपने दुःखों से नहीं बल्‍कि, दूसरों के सुख से परेशान रहता है। मंगर भी शिवमंगल से काफी परेशान था।

वह शिवमंगल की दौलत पर दाँत गड़ाए हुए था। उसे अपने परिश्रम पर भरोसा न था। उसका मत था कि मेहनत से इंसान कभी स्‍वप्‍न में भी दौलतमंद नहीं बन सकता है। दौलतमंद बनने की खातिर दूसरों की दौलत हड़पता नितांत जरूरी है। इसलिए दिन-रात ईश्‍वर से यही विनती करता कि हे परमात्‍मा ! या तो शिवमंगल को इस दुनिया से उठा लो या उसे किसी ऐसी झंझट में फँसा दो कि उसकी सारी पुश्‍तैनी दौलत लेकर मैं रातोरात अमीर बन जाऊँ।

दौलतमंद बनने के लिए वह हमेशा यथासंभव हर यत्‍न करने में जुटा रहता था। उसकी मंशा थी कि इंसान अधिक से अधिक जितना धन एकत्र कर सकता है उसे अवश्‍य करना चाहिए क्‍योंकि निर्धन और गरीब व्‍यक्‍ति की इस जमाने में कोई औकात ही नहीं है। उसे कोई नहीं पूछता है। धनी मनुष्‍य की चाह हर जगह होती है। उसे समाज में भरपूर मान-सम्‍मान मिलता है।

यह सोचकर मंगर के मन में बड़ी प्रबल इच्‍छा थी कि शिवमंगल किसी बड़ी मुसीबत की गिरफ्‍त में उलझ जाए। उसके उलझने में ही मेरा सुख है। जब तक वह सुखी रहेगा तब तक मुझे सुखमय जीवन नसीब न होगा। ईश्‍वर करे कि शिवमंगल का सारा धन किसी तरह मुझे मिल जाए और बिना महनत के ही मैं बेखटके चैन की बंसी बजाऊँ।

वैसे तो कौओं के मनाने से डाँगर नहीं मरा करते हैं फिर भी दिल से निकली बात का कुछ न कुछ असर अवश्‍य होता है। तभी मानों बिल्‍ली के भाग्‍य से छीका ही टूट गया। दरअसल हुआ यह कि शिवमंगल के जीवन में यकायक एक भयंकर तूफान आ गया। इससे उसका सब कुछ देखते ही देखते तहस-नहस हो गया। शिव मंगल जितना निष्‍कपट था उसकी पत्‍नी सरोज तरुणावस्‍था से ही उतनी कुमार्गी थी। उसे धर्म-अधर्म से कुछ भी लेना-देना न था।

सरोज गजब की सुंदर और रंग-रूप की रानी तो थी ही, अपनी सुंदरता पर उसे बहुत नाज भी था। अपने खूबसूरत गदराए और मदमस्‍त बदन को दिखाकर वह तंदुरुस्‍त, सुंदर, युवकों को ललचाती रहती थी। अनाड़ी नवभ्रमर आशिक कली का रस पीने को उतावले थे। वे उसे देखते ही दीवाने से हो जाते। वे उससे मिलने को बेताब हो उठते।

पर, सरोज के अंदर एक बड़ी कमी भी थी। जो उसके रंग-रूप की तनिक भी खुलकर तारीफ कर देता वह उस पर तन,मन से न्‍यौछावर हो जाती थी। शादी से पहले ही उसने अपने मायके में इतने यार बना लिया कि उसे अब विवाह जैसे सामाजिक संस्‍कार की कोई जरूरत ही न रह गई थी। मानो वह अपनी स्‍वेच्‍छा से आधुनिक शब्‍द लिव इन रिलेशनसिप में यकीन करती थी। अवसर मिलते ही कभी किसी के साथ ऐश करती तो कभी किसी के साथ। उसकी नजर में विवाह जैसे पवित्र बंधन का कोई अर्थ और महत्‍व न था। यही उसकी दिनचर्या थी।

अपने मायके में युवावस्‍था की शुरुआत से ही सरोज बड़ी मनमौजी रंगीली, चालबाज और स्‍वछंद विचार की थी। उसके पीछे आशिकों की कतार लगी रहती थी। तरूणाई की दहलीज पर कदम रखते ही उसने खुल्‍लमखुल्‍ला कामक्रीड़ा का आनंद लेना शुरू कर दिया। वह एक अय्याशबाज स्‍त्री थी। कामक्रीड़ा में किसी की रोक-टोक उसे कतई पसंद न थी। कामतृप्‍ति के खेल में खुले मन से मौजमस्‍ती करना उसकी आदत थी।

वह सदा अपनी मनमानी करने पर तुली रहती थी। जब सरोज के साथ फकीराबाद में शिवमंगल का विवाह हुआ तक सरोज कई घाटों का पानी पी चुकी थी। बल्‍कि, यह समझिए कि शारीरिक भूख और प्‍यास मिटाते-मिटाते और अधिक बढ़ गई। उसकी तृष्‍णा कभी शांत होने का नाम ही न लेती।

यद्यपि शिव मंगल स्‍वभाव से निहायत ही सीधा-सादा पुरुष था। उसके मन में किसी के प्रति कोई छल-कपट न था। बहुत ही निष्‍छल हृदय का व्‍यक्‍ति था। वह हर प्रकार से तृप्‍त था। अब उसे और किसी चीज की जरूरत न थी। वह पूर्णतया संतुष्‍ट था। धन पाने की लालसा में कभी भूलकर भी हाय-तोबा न करता था।

उसके मन में गजब का संतोष रूपी धन समाया हुआ था। वह दिन भर अपने खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करता और शाम को घर आने पर रूखी-सूखी जो मिली उसे खा-पीकर बेफिक्र सो जाता। उसे किसी बात का खटका न रहता था अतएव बिस्‍तर पर जाते ही गहरी नींद आ जाती थी। सरोज को उसकी यह आदत कतई बर्दाश्‍त न थी।

शिवमंगल से ब्‍याह होने के बाद सरोज जब सिहोर सरांय आई तब उसके दो-चार चहेते भ्रमर वहाँ भी आना-जाना शुरू कर दिए। इतना ही नहीं, विवाह के दो-चार महीने बाद ही वह वहाँ भी अपने यारों की टोली बनाने लगी। हाँ इतना अवश्‍य है कि सरोज की गोद में अभी तक कोई संतान न थी। उसकी गोद अभी एकदम सूनी ही थी। आग सुलगती है तो धुआँ उठता ही है नित नए-नए आशिक बदलने से धीरे-धीरे सारे गाँव में सरोज की चर्चा होने लगी।

गाँव के स्‍त्री-पुरुष एक-दूसरे से उसके बारे में कानाफूसी करने लगे। उसकी चाल-चलन को लोग संदेह की नजर से देखने लगे। वे कहने लगे रूप-रंग में यह कितनी सुंदर है मगर, तनिक इसका काम तो देखिए। ऊपर से यह जितनी रूपवती है भीतर से उतनी ही कुरूप है। ऐसे में इसकी सुंदरता के कोई मायने नहीं रह जाते। लगता है यह पूर्व जन्‍म में कोई कुतिया थी। इसका पेट भरने का नाम तक नहीं ले रहा है। सुंदर तो वह होता है जिसका मन भी सुंदर हो। ऐसी बदचलन और छिनाल औरते अपने मर्द को भी मरवा डालती हैं। ऐसी कुल्‍टा स्‍त्रियों का कोई भरोसा थोड़े ही है।

आहिस्‍ता-आहिस्‍ता दावानल की भाँति यह खबर समूचे गाँव में फैल गई। कुछ लोगों ने सरोज की अय्‌याशी के प्रति शिवमंगल का कान भी भरना आरंभ कर दिया। यह सुनकर साफ नीयत के भोलेभाले शिवमंगल के दिल में अपार कष्‍ट हुआ। वह सोचने लगा मैं भी एक पूर्ण मर्द हूँ। मेरे अंदर भी पौरुष है। मैं किसी भी स्‍त्री को खुश कर सकता हूँ।

इसके बावजूद यह औरत न जाने क्‍या चाहती है ? इसे हर वक्‍त एक ही धुन सवार रहती है। पत्‍नी धर्म से इसे कोई दरकार नहीं है। यह दिन-रात दैहिक सुख में लीन रहती है। वह हमेशा इसी फिक्र में व्‍यस्‍त रहता कि अपनी अर्धांगिनी सरोज की बिगड़ी आदत को कैसे सुधारूँ ? पर उसे कोई कारगर उपाय न सूझ रहा था। वह उसे सुधारने की बहुत माथा-पच्‍ची करता लेकिन, सब व्‍यर्थ। शिवमंगल ज्‍यों-ज्‍यों दवा करता मर्ज त्‍यों-त्‍यों बढ़ता जाता।

अंत में एक रोज बात यहाँ तक पहुँच गई कि शिवमंगल घर के अंदर बिस्‍तर पर गहरी नींद में सोने का नाटक करते हुए लेटा था। सरोज ने समझा कि मेरे पतिदेव आराम से गहरी नींद में सो रहे हैं। उसके पास मनचलों का आना-जाना लगा ही रहता था इतने में सरोज के दो-तीन दीवाने गुड्‌डू, मोहित और मदन आ पहुँचे। वे उसके इश्‍क में पगलाए हुए थे।

उनके आते ही सरोज कनखियों से उनकी ओर देखकर उदास मन से शिवमंगल की ओर इशारा करके बोली देखिए, मेरी एक अर्ज है इस मुँए के रहते हम लोग खुलकर कभी भी मौज नहीं कर सकते हैं। यह हमारे मार्ग में सबसे बड़ा काँटा है अतः मैं चाहती हूँ कि इसे अब सदैव के लिए अपने रास्‍ते से हटा दीजिए। मेरी तो किस्‍मत ही खराब थी कि इस मरदूद के संग शादी हो गई। औरत क्‍या है और पुरुष से क्‍या चाहती है इसे कुछ अता-पता ही नहीं है। आज मैं कसम खाकर कहती हूँ जब तक यमराज की गोद में नहीं भेजेंगे तब तक मैं किसी को अपना शरीर स्‍पर्श भी न करने दूँगी।

सरोज का बदला हुआ रूप देखकर गुड्‌डू, मोहित और मदन एक सुर में बोले देवी ! आप एकदम निश्‍चिंत रहिए। आप जैसा चाहती हैं अब वैसा ही होगा। आपकी यह पीड़ा हमसे देखी नहीं जाती। हम इसे एकाध दिन में ही मौत के मुँह में भेजकर दम लेंगे। रात-दिन का यह खटका जल्‍दी ही मिट जाएगा। इतना कहकर वे अपने-अपने घर चले गए और शिवमंगल की हत्‍या करने की साजिश रचने में जुट गए। उनके चले जाने के पश्‍चात सरोज जाकर चुपचाप सो गई। बिस्‍तर पर जाते ही उसे गहरी नींद आ गई और अपने स्‍वप्‍नलोक में खो गई।

शिवमंगल सोने का नाटक तो कर ही रहा था बिस्‍तर पर चुपचाप लेटे-लेटे उसने उनकी सारी बातें अपने कानों से सुन ली। यह सुनकर वह अपने मन में बोला अच्‍छा! तो मेरी बिल्‍ली मुझे ही म्‍याऊँ ? इसकी यह मजाल कि जिस थाली में खाए उसी में छेद करने को सोच रही है। यह चुड़ेल अपने रास्‍ते का रोड़ा समझकर मुझे ही हमेशा के लिए हटाने की बात कर रही है।

वह अपने आप से फिर बोला मेरा नाम भी शिवमंगल है। मैं सीधा हूँ तो क्‍या हुआ ? जरूरत से ज्‍यादा सीधा-सादा होना भी हानिकर है। मैं इतना भोला और बेवकूफ थोड़े ही हूँ कि यह असमय ही मुझे काल के गाल में पहुँचाने का षड़यंत्र रचती रहे और मैं गूँगे-बहरे की तरह इसकी चाल को कामयाब होने दूँ।

सीधे-सादे इंसान का क्रोधावेश बड़ा ही खतरनाक होता है वह जब तक धैर्य के साथ सब कुछ सहन करता है तब तक सहन करता है मगर, जब वह बिगड़ैल साँड़ की भाँति बिगड़ खड़ा होता है तब उसे फिर सँभालना बहुत कठिन हो जाता है।

ऐसे व्‍यक्‍ति को चुनौती देना कभी-कभार बहुत ही घातक सिद्ध होता है। किसी की बात दिल में लग जाने पर स्‍वाभिमानी पुरुष अत्‍यंत भयानक रूप घारण कर लेता है। वह अपने बल और पौरुष को ललकारते हुए देखकर जान लेने-देने पर उतारु हो जाता है। शिवमंगल के स्‍वाभिमान ने भी उसे ललकार दिया। उसके मासूम दिल पर शैतान सवार हो गया। वह इंसान से पशु बन गया। उसका पारा एकदम गर्म हो गया। उसकी मुट्ठियाँ भिंच गईं। वह अपने दाँत मिसमिसाने लगा।

उसने अपनी धर्मपत्‍नी सरोज को यमपुरी का रास्‍ता दिखाने को ठान लिया। उस रात वह पूरी नींद सो न सका। सारी रात करवटें ही बदलता रहा। दुराशा भय से नींद उसकी आँखों से बहुत दूर जा चुकी थी। उस समय उसके नेत्रों से क्रोध की चिंगारियाँ निकल रही थीं।

सरोज बेफिक्र सो ही रही थी इतने में रात के तीन-साढ़े तीन बज गए। शिवमंगल दबे पाँव उठा और कुल्‍हाड़ी लेकर सोती हुई सरोज को बेसुध होकर टहनी की तरह काटने लगा। उसने उसका काम तमाम इतनी शीघ्रता से किया कि वह चिल्‍ला भी न सकी।

कुल्‍हाड़ी के वार से सरोज पलक झपकते ही संसार से चल बसी। उसके प्राण पखेरु क्षण भर में ही उड़ गए। पत्‍नी के रक्षक पति ने ही भक्षक बनकर उसके प्राणों को हर लिया। परंतु क्रोध और आवेश में लिया गया उसका यह निर्णय गलत ही साबित हुआ। शिवमंगल की आत्‍मा ने उसके कर्म के लिए धिक्‍कार दिया।

अपनी प्रिय पत्‍नी की अनेक टुकड़ों में कटी लाश को देखकर वह अपनी सुधबुध खो बैठा। अपना होश-हवाश खोकर वह खून से लथपथ कुल्‍हाड़ी अपने हाथ में लेकर सरोज के निर्जीव शरीर के पास जमीन पर तपस्‍वी मुद्रा में बैठकर तप में लीन हो गया। शनैः-शनैः रात गुजर गई और सबेरा हो गया।

मंगर अपने दुश्‍मन शिवमंगल को मकड़जाल में उलझाने को बेताब था ही सुबह होने पर शिवमंगल के घर से प्रतिदिन की तरह किसी शोरगुल को न सुनकर उसे बड़ा अचंभा हुआ। वह सोचने लगा क्‍या बात है जिस घर में हरदम महाभारत मचा रहता था उस घर में आज इतनी शांति कैसे है। यहाँ मुर्दनी सी क्‍यों छाई हुई है ? चलो वहाँ चलकर तनिक पता तो लगाऊँ।

यह सोचकर सच्‍चाई मालूम करने की गरज से मंगर टहलता हुआ उसके दरवाजे पर जा पहुँचा। वहाँ जाकर उसने देखा कि शिवमंगल धरती पर एक रक्‍तरंजित कुल्‍हाड़ी लेकर निद्रामग्‍न बैठा हुआ है। उसकी बगल में चारपाई पर सरोज की कटी हुई लहूलुहान देह पड़ी है।

यह देखते ही मंगर मन ही मन बहुत प्रसन्‍न हुआ। उसकी खुशी का कोई ठिकाना ही न रहा। अंधे को क्‍या चाहिए बस दो आँखें मानो उसे मुँह माँगी मुराद मिल गई। मारे खुशी के वह उछल पड़ा। अपने अरमान पूरे होने की प्रसन्‍नता के अतिरेक में उसके मुख से चीख निकल गई। वह अकस्‍मात हड़बड़ाकर चिल्‍लाता हुआ भागने लगा शिवमंगल ने अपनी बीवी को मार डाला। अरे ! शिवमंगल ने उसका कत्‍ल कर दिया उसने सरोज को काट डाला। मंगर सोचने लगा अब इसकी दौलत मुझे जरूर मिल जाएगी। अब यह अभागा अपने ही बिछाए जाल में बुरी तरह फँस चुका है।

यह खबर जंगल की आग की भाँति पलक झपकते ही सारे गाँव में फैल गई। तनिक देर में ही वहाँ स्‍त्री-पुरुष और बच्‍चों का मजमा लग गया। शिवमंगल की कारगुजारी देखकर ग्रामीण दंग रह गए। तदंतर इस वारदात की भनक पुलिस को भी लग गई। पुलिस आई और मौका वारदात का मुआयना करके सरोज की लाश को पोस्‍टमार्टम के लिए सदर अस्‍पताल भेज दिया।

तत्‍पश्‍चात रंगे हाथ गिरफ्‍तार किए गए शिवमंगल को अदालत में पेश करने के बाद बड़े घर रवाना कर दिया। उसके जेल चले जाने से मंगर के अरमानों पर जरा सी देर में पानी फिर गया। उसके हाथ कुछ भी न लगा। उसे एक पाई भी न मिली। वह हाथ ही मलते रह गया। वह सोचने लगा भगवान करे अब शिवमंगल आजीवन जेल में ही पड़ा रहे। वह कभी वहाँ से मुक्‍त न हो। मैं भी इसी कुनबे का हूँ। अब उसकी सारी दौलत मेरी हो जाएगी।

बाद में सरोज की हत्‍या करने के इल्‍जाम में अदालत ने उसे कठोर कारावास की सजा सुनाते हुए सात साल के लिए काल कोठरी में डाल दिया। सजा की मियाद पूरी हो जाने पर वह जेल से रिहा कर दिया गया। मानसिक विक्षिप्‍तता की अवस्‍था में ही वह पुनः अपने घर गया और सरोज की यादों के सहारे अपना जीवन गुजारने लगा। मंगर कहीं उसके चाँदी के सिक्‍कों को चुरा न ले इसलिए वह उन्‍हें अपनी कमर में बाँधकर रखता था।

उसे अपने किए पर पश्‍चाताप तो हुआ किंतु, कब क्‍या और कैसे हो गया अब उसे कुछ भी याद न था। उसकी याददास्‍त जा चुकी थी। वह भाँग और गाँजे के नशे का आदी हो गया। मंगर ने बहुत कोशिश की कि शिवमंगल अपनी कुछ दौलत उसे दे दे पर, उसने उसे एक फूटी कौड़ी तक न दी।

लोभी मंगर छटपटाकर रह गया। अपनी सोच पर उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसी दिन उसने सौगंध खा ली कि अब मैं अपनी मेहनत की कमाई पर ही भरोसा करुँगा। मुफ्‍त में मिली दौलत के सहारे न रहूँगा।


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