राजकुमार कांदु

Tragedy Classics

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राजकुमार कांदु

Tragedy Classics

आधार

आधार

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रज्जो का पति कल्लू शहर में दिहाड़ी मजदूरी का काम करता था। बहुत दिन हुए उसने शहर से कुछ नहीं भेजा था। जब पिछली बार फोन किया था, निराश लग रहा था। रुआंसा होकर उसने रज्जो को बताया था " कोई रोजगार मिल नहीं रहा है। दो दिन से मेरे पास भी पैसे नहीं हैं। देखो ! तुम गांव में कुछ भी कर लो, मजदूरी वगैरह, मैं कुछ नहीं बोलूंगा बस बच्चों का ध्यान रखना। " 

 आज लगातार तीसरा दिन था जब घर में चूल्हा नहीं जला था। बड़ी बेटी ग्यारह वर्षीया निशा का भूख के मारे बुरा हाल था लेकिन वह अपने भूख की परवाह न कर भूख बरदाश्त न कर पाने की वजह से बिलख रही सात वर्षीया अपनी बहन मुनिया को दिलासा देते हुए चुप करा रही थी। 

 दोनों बच्चों को रोता बिलखता देखकर रज्जो का कलेजा मुंह को आ गया।

घर में बर्तन के नाम पर कुछ टिन के डिब्बे थे जिन्हें खंगालने पर उसे एक डिब्बे के नीचे पड़ा हुआ पांच रुपये का एक सिक्का मिल गया। सिक्का मिलते ही उसने फूस की छत में खोंसी हुई राशन कार्ड निकाल लिया। बड़े जतन से सिक्के को मुट्ठी में पकड़े हुए निशा से कहा " बेटा ! थोड़ी देर और मुनिया को संभालो ! मैँ अभी कुछ खाने को ले आती हूँ। " रज्जो जैसे ही चलने को हुई मुनिया उसके पैरों से लिपट गयी। रोती बिलखती मुनिया के मुख से " अम्मा ! भात ....! अम्मा ! भात ....! " यही दो शब्द निकल रहे थे। 

 अपने जज्बातों पर काबू रखते हुए रज्जो किसी तरह दोनों को समझा बुझाकर घर से बाहर निकली। कड़ी धूप में दो किलोमीटर चलकर पसीने से लथपथ रज्जो सरकारी गल्ले की दुकान पर पहुंची। राशनकार्ड पुस्तिका के पन्ने पलटते हुए दुकानदार ने रज्जो से उसका आधार कार्ड मांगा। अपनी मजबूरी बताते हुए रज्जो रो पड़ी " लाला ! अभी राशन दे दो ! बच्चे भूखे हैं। मैं बाद में आधार कार्ड दे जाऊंगी। मेहरबानी कर दो लाला .......! "

"हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। आदेशानुसार हम बिना आधार के राशन नहीं दे सकते। " दुकानदार ने समझाने की कोशिश की। 

"इतना राशन तो भरा हुआ है लाला ! थोड़ी सी दे देगा तो क्या बिगड़ जाएगा ? " रज्जो ने फिर भी अपना आग्रह जारी रखा था। 

"सीधी बात तेरी समझ में नहीं आती।

इन अनाजों का एक एक दाना अब हिसाब किताब के दायरे में है और अब यह उनको ही मिलेगा जिसने अपना आधार कार्ड राशन कार्ड के साथ जोड़ रखा है। "दुकानदार ने उसे लगभग झिडकते हुए कहा था। 

 अपना सा मुंह लिए दुखी मन से खाली हाथ रज्जो अपने घर पहुंची। झोंपड़े में घुसते ही रज्जो ने देखा ' निशा जमीन पर बैठी हुई थी और अपनी ओढ़नी उसने मुनिया के शरीर पर ओढ़ा रखा था। माँ को देखते ही निशा ने उंगली अपने होठों के बीच रखकर खामोश रहने का इशारा किया। रज्जो ने बैठकर मुनिया के अधरों को छूकर देखा जो शायद ' भात ' के इंतजार में खुले रह गए थे। 

अब वह ' आधार ' की जिम्मेदारी से मुक्त थी।


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