व्यथा स्त्री की
व्यथा स्त्री की
सुनो व्यथा मेरी,
स्त्री हूँ
मेरा रहन-सहन मेरा तरीका,
क्यों कोई और सिखाए मुझे जीने का तरीका?
हो रहा यह कैसा ज़ुल्म बाहरी आवरण पर चोट-खरोच,
अंदर से टूट चुकी दुबारा उठ खड़ी हो,
न ज़मीं कुछ कहे ना आसमां,
हिम्मत से स्वयं को जगा|
जिन्हें ना फिक्र तेरी, ना हो तुझ से सहमत;
न रख एहसान, न कर इन पर रहमत;
तू मजबूत है, तेरे होने से ही सपूत है;
तू बलिदानी, तू है त्यागी;
फिर भी जुल्म करे मायावी|
सब चुपचाप सह जाती,
रोने की आवाज भी ना आती,
ना करें ऐसा एहसास आवाज उठा,
हिम्मत रख, लोगों की खासियत परख;
तू चल, तू चल, राह नहीं है आसान;
तू चल उम्मीद की किरण लिए,
तेरे दिन भी आएंगे जवान|
दुनिया न सोचे तो क्या हुआ, तू स्वयं सोच;
तू ही मजबूत है, तू ही सपूत है;
जिसे जो करना है कर ले ना,
अडिग हो मन से अबला,
ना कर किसी पर एहसान,
खुद की जिंदगी भी तो जी ले ना|
