व्यक्तित्व का सौरभ
व्यक्तित्व का सौरभ
खूश्बू बिखेरती जिस्म की महक,
फैलती सुगंध लोक व्यवहार से,
ईमान का रंग जब घुलता इसमें,
शील के उपवन का है ये घनक।
सूक्ष्म से सूक्ष्मत्तम संजोता इसे,
व्याप्त से व्याप्कत्तम है विस्तार,
मन मचले बावरा नूर देख जवां,
रोक लो वेग को डूबा है संसार।
जीत तम प्रकाश जो फैला रहा,
सह्र्दय स्पंदन भाव खोल रहा,
मानव सदृश भाये चाल निराले,
महानता का इत्र बिखेरता रहा।
जीवन साध्य कर्मफल से बंधे,
दुखों के चक्र में हम पड़ते रहे,
सत्य ज्ञान-विज्ञान सेअनजान,
जीवन में चुनौती बनकर खड़े।
भोग के नश्वर तन में हम फूले,
माया के फंद में मशगुल झूले,
साधन में हीं मुक्ति का साध्य है,
होशमंद जवां से साध्य भी छूले।