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Rajni Sharma

Romance

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Rajni Sharma

Romance

विरह

विरह

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अक्सर जब मैं

बैठती हूँ

विचारों की नदी पर बहती नौका पे

चुनकर साँसों के मोती

मौन की शान्त लहरों संग,


लेकर आस्था की पतवार

तो कोई अनजान सी

अबोली शक्ति

महावर रचे पैरों से

उतार देती मुझ को

शून्य की धरा पर।


जहां पाती हूँ

खुद को

खटखटाती मैं

अनहद के द्वार का सांकल

किसी तेज पुंज प्रिय

के संग मिलने को।


चढ़ाने को प्राणों का

शाल्मली पुष्प

और फिर

बह उठते हैं

आँखों के रास्ते 

दो अबोले आँसू।


मानो कहीं से

छू कर गया हो

मुझको मेरा प्रियतम।


सच में

प्रेम की गहनता का उपाय

मिलन ही नहीं

विरह भी है।


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