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Praveen Kumar Kotia

Inspirational

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Praveen Kumar Kotia

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विकास का तांडव

विकास का तांडव

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रात भर रोता रहा काला आकाश,

पर बुझा न पाया धरती की प्यास।


फल न पाई सौंधी मिट्टी की आस,

सुबह भी नींद से जागी हो उदास।


रात की बुँदे उछल कर गुम हो गई,

मानो उड़ती धूल के कनो में सो गई।


पिघल न पाया वज्र विकास का मन,

खिल न सका धरती का अब यौवन।


प्रकृति भुगत रही है कैसा इसका दंड,

क्योंकि लालच विकास का है उदंड। 


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