विकास का तांडव
विकास का तांडव
रात भर रोता रहा काला आकाश,
पर बुझा न पाया धरती की प्यास।
फल न पाई सौंधी मिट्टी की आस,
सुबह भी नींद से जागी हो उदास।
रात की बुँदे उछल कर गुम हो गई,
मानो उड़ती धूल के कनो में सो गई।
पिघल न पाया वज्र विकास का मन,
खिल न सका धरती का अब यौवन।
प्रकृति भुगत रही है कैसा इसका दंड,
क्योंकि लालच विकास का है उदंड।