वातायन
वातायन
अनभिज्ञ थी,
जग के अप्रतिम
सौंदर्य से,
बन्द कोठरी में,
जीवंतता की,
अनुभूति न थी।
आदि हो गई,
अंधेरे की,
घुटन की।
पंख थे,
किन्तु,
उड़ान का
सामर्थ्य नहीं।
किंचित,
अनभिज्ञ थी,
पंख के कार्य से,
उसकी,
उपयोगिता व
सबलता से,
व्योम के अभाव में,
विकलांगता को प्राप्त
कर चुकी थी।
किन्तु अनायास ही,
वातायन से आती,
किरणों की रेखा ने,
इन आँखों में
उजास भर दिए।
मन्द पवन ने,
मानो,
प्राणवायु भरकर
मुझमें जीवन की
उत्कंठा में,
वृद्धि उतपन्न
कर दी हो।
अनुभूति हुई,
बन्द कोठरी के
बाहर भी,
जीवन है।
पंख मद्धिम से,
चलायमान ही
कर रही थी,
कि बाहर
बहेलिये ने भी,
नए-नए स्वरूप में,
मेरी स्वतंत्रता,
छीनने का,
षड्यंत्र प्रारम्भ
कर दिया।
कभी वहशी
निगाहों से,
कभी अश्लील
फब्तियों से,
इससे भी जब
संतुष्ट न हुए,
फिर बल प्रयोग से,
मेरी आत्मा को ही,
मृत अवस्था मे लाने की,
पतित चेष्टा की।
किन्तु,
शक्ति की
पर्याय हूँ न,
पराजय स्वीकार्य,
स्वभावगत
अभिरुचि नहीं।
और फिर सशक्त भी हूँ।
सक्षमता बोध हेतु,
वातायन से आती,
किरणें पर्याप्त हैं,
चेतनशील होकर,
निज अस्तित्व की,
रक्षा कर,
जग में अपनी महत्ता,
स्थापित करने के लिए।
