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मानव सिंह राणा 'सुओम'

Abstract

4.5  

मानव सिंह राणा 'सुओम'

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उत्सव

उत्सव

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अब पता ही नहीं चलता कब उत्सव निकल गए.

हर एक त्यौहार पर हम कितना छले गए.


वो गली की भाभी पर होली का रंग लगाना

वो मस्ती करते हर एक घर की गुजिया खाना.

गले लगकर बधाई दे देकर आना..

दोस्तों को अपने मन की सुगंध लगाना.

चहक कर माँ पिताजी के पैर छू आना.

अब तो सर पर रखे स्नेह भरे हाथ निकल गए 

गुलाल लगाने के अब तो तरीके बदल गए...

अब पता ही नहीं चलता कब उत्सव निकल गए....


दिवाली में हर घर पर चमकते दिए.

खुशियों की मिठाइयाँ हाथों में लिए

साथ में पूजा करना घर की समृद्धि के लिए 

माँ का कहना थाली से तिलक लगा लिए.

अब तो केवल दिखावा ही दिल में हू लिए

घर में गाली देते चौक में ताऊ के पैर छु लिए.

कब गांव के चौक पीछे निकल गए..

अब पता ही नहीं चलता कब उत्सव निकल गए......


पहले महीनो से तैयारियां होती थी दावतों की..

पूरी एक सूची होती थी रिवायतों की.

पंगत में खाने को बैठते थे पत्तल पर पहले लोग.

खाते थे रुखा सूखा खाना भी लगाकर भोग.

शादी ब्याह के भी अब तरीके बदल गए.

अब डोंगा सिस्टम में वो पल भी बदल गए.

नखरे दिखाने वाले जीजा जी के तेवर बदल गए.

फूफा जी भी जाने कब अब संभल गए...

अब पता ही नहीं चलता कब उत्सव निकल गए....


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