उत्सव मृत्यु का
उत्सव मृत्यु का
क्यों न मृत्यु का भी उत्सव किया जाए।
एक मात्र शाश्वत सत्य यही,
शिव के त्रिनेत्र का रहस्य यही,
चंडी का नैसर्गिक रौद्र नृत्य यही,
कृष्णा सा श्यामला, राधा सा शस्य यही।
तो क्यों न मीरा सा इसका
भी विषपान किया जाए।
ये अनादि है, ये अनंत है,
ये गजानन का त्रिशूली दंत है,
यही है गोचर, यही अगोचर,
यही तीनों लोकों का महंत है।
तो क्यों न देवों की तरह इसका
भी रसपान किया जाए।
यही अनल है, यही अटल है,
यही शांत है, यही विकल है,
यही है भूत, यही भविष्यत,
ब्रह्मांडों का अस्तित्व सकल है।
तो क्यों न भीष्म सा इसको
भी जीवन दान दिया जाए।
यही है हर्ता, यही है कर्ता,
यही है दाता, यही है ज्ञाता,
समय के व्यूह पर अनवरत
सवार ,
यही है माता, यही विधाता।
तो क्यों न जननी की तरह इसका
भी सम्मान किया जाए।