उम्मीद...!!!
उम्मीद...!!!
रोज निकलता हूँ
अपने गंतव्य पे,
कुछ अरमानों के साथ।
सोचता हूँ
समेट लूंगा जहान,
पर कुछ ना लगता हाथ।
लड़ता हूँ रोज मैं
अंतर्मन के युद्ध से,
मनुष्य हूँ मैं...
फिर कैसे मान लूँ हार।
ना है उम्मीद किसी से
ना अनुग्रह किसी से करता हूँ
पल भर में मर जाता हूँ
मैं...पल भर जीता रहता हूँ।
