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Vishwa Priya

Abstract Drama

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Vishwa Priya

Abstract Drama

उड़ते सफ़ेद पर्दे

उड़ते सफ़ेद पर्दे

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उड़ते सफ़ेद पर्दे

कभी खुली खिड़कियों से उड़ घर के अंदर आते 

तो कभी दरवाज़ों से लहरा बाहर चले जाते।

हवा के झोकों के साथ अपनी राह बदलते,

जाने कितनी यादों को फिर से ताज़ा कर जाते,

ये उड़ते सफ़ेद, जालीदार पर्दे।

मुझे नहीं पता,

मुझे क्यूँ हैं पसन्द ये सफ़ेद, जालीदार,

फूलों के उभार वाले पर्दे!

बस जब उड़ते हैं तो लगता है मानो

अपने साथ ले आए हों

खूब सारी बातें कमरे के अंदर।

वो नानी दादी के साथ बैठ की गई अनगिनत बातें हों 

या फिर शाम में छुप्पम छुपाइ खेलते समय

बगल में छिपे दोस्त से की गयी खुसर पुसर।

  

जब कभी हवा को लपेट कर ये अंदर धकेल देते हैं,

तो लगता है जैसे कह रहे हों,

लो रख लो सम्भाल कर,

ये वही हवा है जो बचपन में एक दिन

तुम्हें छू कर गयी थी जब तुमने पापा से

नई ड्रेस दिलवाने की ज़िद की थी और

पापा चल दिए थे स्कूटर ले कर तुम्हे वो

ड्रेस दिलवाने।

और ज्यों ही खिड़की दरवाज़े बन्द कर दो तो 

लगता जैसे रूठ गए हो

उसी सहेली की तरह जो स्कूल में,

शुरू के एक दो पीरियड तक तो गुस्सा रहती ,

पर तीसरे ही पीरियड में मुस्कुरा कर

पास आ जाती

और कहती चल हम दोनों फ़िर से

बेस्ट फ्रेंड बन जाते हैं।


कभी अगर ग़लती से

खिड़की थोड़ी खुली रह भी जाये ,

तो बीच से आती हवा पर यूँ लहलाते 

जैसे मम्मी जब पापा की डांट से

बचाने को चुपके से कहती थीं

पढ़ लो जल्दी से नहीं तो डांट पड़ेगी।

और किसी रंग में ये बात तो नहीं आती

मुझे तो बस अच्छे लगते हैं ये

सफ़ेद, जालीदार, उभरे फूलों वाले पर्दे।


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