तुम नारी
तुम नारी
क्यों अबला बनकर रही सदा,
शक्ति नहीं पहचान सकी।
हो दुर्गा, लक्ष्मी, काली तुम,
नहीं स्वयं को जान सकी।
क्यों हरदम खुद से हारी हो,
जग पर यूँ बलिहारी हो ?
क्यों ? चाहा तुमने मान नहीं
जिसकी तुम अधिकारी हो।
क्यों आया तुम्हे प्रतिकार नहीं ?
या खुद पर भी अधिकार नहीं ?
क्यों जकड़ी अब भी बेड़ी से
क्या आजादी स्वीकार नहीं ?
क्या होता नहीं है चोटिल मन ?
तो क्यों सहती फिर बोझिल तन ?
क्यों पीकर पीड़ाएँ सारी
क्यों रहती सर सी निर्मल बन ?
क्यों समझ नहीं तुम पाती हो ?
या अब भी तुम सकुचाती हो ?
विश्वास नहीं निज क्षमता पर
या खुद से ही डर जाती हो ?
तुम आभा सूरज जैसी हो,
तुम निर्मल गंगा पानी हो,
जो रुके नहीं बहता अविरल,
तुम ऐसी अमिट कहानी हो।
तुम जग की भाग्य विधाता हो,
हर युग की तुम निर्माता हो,
है नत मस्तक जग चरणों में,
इस सृष्टि की सृजाता हो।