गृह-स्वामिनी
गृह-स्वामिनी
यूँ अचानक
बैठे बैठे ही उसकी
नज़र पड़ गई
निज अस्तित्व पर ....
बड़ी अजमंजस में भृमित सी
देखने लगी खुद को
धूल धूसरित ,बड़ी मनिल सी ,
सकुचित सी ,अचंभित सी
निहारे जा रही थी खुद को ....
अरे ! ये तो गृह स्वामिनी है किसी की
धुरी है किसी के संसार की ,
क्या सच में ?
या महज़ एक छलावा ,
जो सदियों से होता आया उसके सँग,
और वो उस छलावे में जीती आई ,
छलावा ही तो था ये जो छल ले गया ,
उसके ज़िन्दगी के कितने वर्ष ,
कितने सपने ,कितनी इच्छाएं ,
कितने अरमानों को हत किया
अपने इन्ही हाथों से ,,,
जकड़ सी गई बन्धनों में ,,
सांस लेना ही भूल गयी खुली हवा में
जैसे साँस भी स्वीकृति चाहती है किसी की
जबकि उन्मुक्तता कितनी लुभाती थी उसे ,
उड़ते पंछियों के संग कितनी बार उड़ना चाहा उसने ,
बहते झरने सा कल कल गीत कितने बार अंतरित हुआ मन में ,
हवा का संगीत कितनी बार बज उठा उसके अंदर ,,
बहती नदी सा प्रवाह ,
जाने कब ठहर गया झील की तरह ,
आह !! ये कौन सी छाया पकड़ने की कोशिश कर रही थी मैं ,
वो जो विलीन हो गयी है मेरे ही वजूद में ...
मानो तंद्रा टूटी हो उसकी .....