तृष्णा
तृष्णा
तृष्णा का कोई अंत ही नहीं
इससे बचा कोई संत भी नहीं
किसी ने चाहत की खुले आसमान की
किसी ने शोहरत, दौलत , मुकाम की
कोई ढूंढे रब को हर काया में
कोई बस समय गंवायें माया में
तृष्णा छोड़ना काम कोई आसान नही
जाम है ऐसा,बचा इससे कोई मयखाना नही
बूंद हो या हो समंदर,प्यास बुझती कहां
तृष्णा के सिवा बात कोई सूझती कहां
वैसे किताबें भरी पड़ी हैं कई फलसफों से
जिससे पीछा छूटे तृष्णाओं से
है इनका भी एक आचरण, एक दस्तूर
गर ईमान जिंदा हो, तो नही कोई यह कसूर
तृष्णा चाहे रब की हो, या माया - शोहरत की
नियत गर यथार्थ हो, तृष्णा बदसूरत नही.......