स्वच्छंद रचना " जिंदगी की दौड़ "
स्वच्छंद रचना " जिंदगी की दौड़ "
ज़िंदगी की दौड़ का, कुछ ऐसा प्रारंभ हो
जहां थक कर हार जाओ, वहीं से आरम्भ हो
मकां की हर नींव तेरी, पीठ पर टिकी हो जैसे
और दोनों हाथ हो तेरे, घर के कोई स्तंभ हो
क्यूं सोच में गंवा रहे हो, हौसलों की उड़ान को
खोल अपने पंख तुम, अब न कोई विलम्ब हो
इक खुशी की खोज में, व्यर्थ न कर यूं ही समय
हर पल को कुछ ऐसा जियो, जैसे समारंभ हो
भूल कर भूतकाल तुम, सब दुख को त्याग दो
रोज नयी मुस्कान से, बस दिन का शुभारंभ हो
ज़िंदगी की दौड़ का, कुछ ऐसा प्रारंभ हो
जहां थक कर हार जाओ, वहीं से आरम्भ हो
