स्वाभिमान (लघु कथा)
स्वाभिमान (लघु कथा)
जाने क्यों ब्याह के बाद हर बेटी पराई हो जाती है पीहर वाले साथ नहीं देते। छोड़ देते हैं। उसे उसके दुःख के साथ। चाहे कितना ही बेटी अपने घरवालों के मन का ही क्यों न कर ले। यही सोचती हुई राधा रोती हुई अपनी किस्मत को कोस रही थी। अचानक उसके अन्तर्मन ने उसे पुकारा और धिक्कारते हुए ससुराल में अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने को प्रेरित किया।
ख़ुद से ही लड़ते हुए कुछ देर बाद आख़िर राधा ने ज़ुल्म के खिलाफ लड़ने की सोची। लेकिन ये सब इतना आसान कहाँ था। कोई भी तो उसके साथ नहीं था। पीहर वाले भी तो कह चुके थे। सहो लड़ो पर वहीं रहो अगर नहीं लड़ सकती तो फ़िर मर जाओ। राधा ने सोच लिया था मरना तो है ही एक न एक दिन फिर ज़ुल्म सहकर क्यों मरूं अच्छा होगा जो ज़ुल्म के खिलाफ लड़कर मरुं जिससे नव पीढ़ी और अन्य स्त्री वर्ग में ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की क्षमता जागृत होगी। हमेशा बचपन से ही औरतों को ही सहना क्यों सिखाया जाता है अगर वो सही है फ़िर भी। हद है। न औरतों के कोई अधिकार है। न आत्मसम्मान। न स्वाभिमान। न ख्वाब। न ख्वाहिश। आख़िर क्यों क्या हम औरतें इंसान नहीं। क्य़ा हम शिक्षित और समझदार नहीं। ये सोचते हुए राधा ने अपने स्वाभिमान को चुना और पति से तलाक लेकर अपने बच्चे के साथ घर छोड़ दिया और कहीं दूर निकल कर नयी दुनिया की शुरुआत करने। नौकरी की शुरुआत की। बच्चे का अच्छे स्कूल में दाखिला कराया। माँ और बेटा दोनों एक दूसरे को भरपूर समय देते थे। राधा ने एक सुखद जीवन की शुरुआत की जिसमें वास्तव में सुख था।