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Varsha Singh

Abstract

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Varsha Singh

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सपनों पर एक ग़ज़ल

सपनों पर एक ग़ज़ल

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बहुत लुभाते बेघर को घर के सपने

घर में लेकिन आते बाहर के सपने।


प्यूरीफायर देख तैरते आंखों में

पोखर, पनघट वाले, गागर के सपने।


अपनों से अपमानित बूढ़ों से पूछो

कैसे उनकी चाहत के दरके सपने।


वहशीपन ने बचपन के पर काट दिये

आंसू बन कर छलके अम्बर के सपने।


कर्जे की गठरी से जिनकी कमर झुकी

कृषकों को आते हैं ठोकर के सपने।


कंकरीट के जंगल वाले शहरों में

धूलधूसरित आंगन, छप्पर के सपने।


सांसें जिसकी रखी हुई हों गिरवी में

दिल में घुटते बंधुआ चाकर के सपने।


“वर्षा” की उम्मीदें, बादल आयेंगे

इक दिन पूरे होंगे सागर के सपने।


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