सोचो जरा
सोचो जरा
घर घर बिखरा और सडको पर भीड थी
इन्सान को कुदरतके नियमोसे चिढ थी
पेड तोडे, जंगल काटे महल बनाये कांचके
भूल गये कुदरतको जो जीवन की रीढ़ थी
समझाने से समझने वाला इन्सान कब का चला गया
हम किसी से कम नहीं वर्तमान की ये भूल थी
जख्मों भरी सृष्टि जब भूतकाल में झांकी
बोली वहा था जँगल और पानी भरी झील थी
कुदरत ने अपने जख्म खुद भरने की मन में ठानी
जब नशा उतरा घमंड का तब ये दुनिया मानी
पशु, पेड़, मिट्टी, पानी, हर चीज अनमोल है
कुदरत से बड़ा कोई नहीं, ना राजा और ना रानी।