STORYMIRROR

Rachana Dixit

Abstract

4  

Rachana Dixit

Abstract

समुद्र मंथन

समुद्र मंथन

1 min
282

रात 

जब मस्तिष्क 

अपने आतंरिक कक्ष में 

प्रवेश कर रहा था 

सुरमई जुगनू 

अंधेरों को रौशन कर रहे थे 


खामोशी अंधेरों को पी रही थी

अंधेरों के कतरे बिखर रहे थे 

सांसों का बाज़ार नर्म था 

कुछ आयातित कुछ अपहृत सांसें 

बेसुकून से उनींदी सी 

हर करवट पर कराह रही थीं


इक समुद्र मंथन होने लगा 

चेतन, अवचेतन, अतिचेतन सांसें 

पूरी गरिमा के साथ धरने पर बैठ गयीं 

विस्मृतियों की धूल धुंधलाने लगी 

सांसें किसी का एकाधिकार न होने की 

विडम्बना से मचलने लगीं


चौदह घड़ी, चौदह पल, चौदह विपल 

बीत गए 

एक धनवंतरी की तलाश में 

पर हाय 

सांसों के हाथ आया हलाहल 

मस्तिष्क के आंतरिक कक्ष की देहलीज़ पर 

ठिठक कर ठहर गया 


एक आघात, एक पक्षाघात 

और हृदयाघात की आहट 

और हो गया 

सांसों का अवसान।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract