शून्य का स्वाद
शून्य का स्वाद
कामकाजी औरतों को खाना पड़ता है अकेलापन,
कोई नहीं समझ पाता उनकी असल भूख,
देर रात तक उदास बिस्तर पे
घुटनों को सिकोड़कर आसमान तका करती है,
शायद ढूँढती है वो तारा जिसने उसे ऐसा बना दिया।
फिर बना लाती है ब्लैक कॉफ़ी या कड़क चाय
और हाथ में कप थामे फिर तौलने लग जाती है
अपनी ज़िम्मेदारियों को, मौन की गूंज में ख़ुद को टटोलती है
और इससे पहले की वो घर, ऑफिस, स्कूल, रिश्तेदार
इनमें से एक को प्राथमिकता दे सके, दूर से आवाज़ आती है, ‘
बहुत रात हो गई, सोना नहीं है क्या?’
और वो कप को मेज़ पर बने चाय के भूरे छल्ले के
ठीक ऊपर रख कर सोने चले जाती है।
जिन औरतों ने सपने देखे, कुछ अलग करने का सोचा,
उनके लौट आने का इंतज़ार किसी ने नहीं किया
ना लिखी किसी ने कविता उनके उदास मौसमों पे,
ना खिला कोई गुलाब फ़रवरी माह में उनके लिए
वो लौटती रहीं एक ज़िम्मेदारी से दूसरी में,
उन औरतों को लोग कौतुक से देखते
कभी कभार कोई ये कह देता - ‘
तुम बहुत अलग हो सबसे’ और उसकी आँखों का नमक, चमक उठता।
वो घर के बाक़ी लोगों के वर्तमान को नहीं तय करने देती अपना भविष्य;
आत्मनिर्भरता की कस्तूरी खोजते वो जड़वत मुद्रा में करती रहती है काम,
और अपनी मर्ज़ी की ज़रा सी ज़िंदगी जी ले तो ख़ुशी के मारे
ख़ुद को ताज ताज पहना देती है स्वतंत्र नारी होने का।
एकाध बार वो अपने सपने बाँटती बताती है, कभी घर की
दूसरी औरतों से तो कभी अपने जीवनसाथी से, लेकिन सिर्फ़
हक़ीक़त से हाथापाई करके वापस शून्य पर आ बैठती है।
ऐसा नहीं है की शून्य का स्वाद उसने पहली बार चखा हो,
लेकिन बार बार ये स्वाद मुश्किल कर देता है उसे आसान
ज़िंदगी और कठिन सपने में से एक को चुनने में।